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११, १३]
अनुवाद क्रोध जिसके मुखपर अंकित था वह बलशाली शत्रु जिस-जिस रथपर पैर रखता था यशस्वी रविकीर्ति नृप उसी-उसी ( रथ ) पर सैकड़ों बाण चलाता था ॥१२॥
रविकीर्ति द्वारा पद्मनाथका वध रथ-रहित पद्मनाथ धनुष फेंककर तथा हाथमें तलवार खींचकर आवेशसे दौड़ा तथा महीपति-पुत्रसे आकाशमें शनिके समान भयानक रूपसे जूझने लगा।
महाबलशाली शत्रुको देखकर संग्रामोंमें कीर्ति प्राप्त रविकीर्ति रथको छोड़कर भूमिपर उतर आया।
दोनों ही सधीर थे, वीर थे, यशस्वी थे, कुशल थे और भुवन-विख्यात थे। वे युगान्तके समय प्रलयकालीन पूर्व और पश्चिम सागरके समान आकर मिले ।
दोनों ही प्रशस्त-रूप और कुलोत्पन्न थे। दोनों ही महान् यशस्वी और शत्रुओंके संहारक थे। दोनों ही सुभट थे और दृढ़ भृकुटीसे भयंकर थे। दोनों ही के वंश महान् थे। दोनों श्वेत वस्त्र धारण किये थे। दोनों ही खड्गसे ( एक दूसरेपर ) प्रहार करते थे। दोनों ही अपने करोंसे रणकौशल प्रदर्शित करते थे। इसी समय शत्रुओंके लिए सिंह समान उस पद्मनाथने खड्ग घुमाकर उससे भानुकीर्तिके सिरपर आघात किया। इससे चारों दिशाओंमें रुधिर बह पड़ा । वेदनासे विह्वल हो वह मूर्छित हुआ और प्रथिवीपर जा गिरा। इससे दोनों सेनाओंमें कलरव गूंज उठा । तत्काल ही वह यशस्वी नराधिप चेतना प्राप्तकर गर्जना करता हुआ उठा । यशके लोभी प्रतिपक्षी रविकीति नृपने पद्मनाथको हलकार कर उसके वक्षस्थलपर उसी प्रकार प्रहार किया जैसे सिंह गजके कुम्भस्थलपर करता है।
उत्तम देवोंने अत्यन्त उज्ज्वल, रण-कीर्तिसे भूषित, अनेक श्रेष्ठ पुरुषोंसे युक्त तथा (जय) लक्ष्मीसे आलिंगित ( पउमालिंगिय ) रविकीर्ति नरेन्द्रकी प्रशंसा की ॥१३॥
॥ ग्यारहवीं सन्धि समाप्त ।
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