Book Title: Pasanahchariyam
Author(s): Padmkirti
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 380
________________ १३, १२] अनुवाद [ ७५ मानो । " कुमारने भी " ऐसा ही होए" कहकर उसे स्वीकार किया । इससे सबको संतोष हुआ । इसी समय जगके स्वामीने वस्त्र तथा अलंकारोंसे सुसज्जित तथा कस्तूरीकी सुवाससे सुरभित नाना प्रकारके पुरुषोंके समूहको विचरण करते हुए देखा । उन्होंने रविकीर्तिसे पूछा कि “ये कहाँ जा रहे हैं ? आप शीघ्र बतायें ।” उन वचनोंको सुनकर विकसित-मुख श्रेष्ठ पुरुष (रविकीर्ति) ने यह बात बताई - "इस नगरके उत्तर-पश्चिममें एक योजन दूर एक भयानक वन है । उसमें अपनी देहको तपानेवाले, तृण, कंद और फलका भोजन करनेवाले तथा मोह-रहित तपस्वी निवास करते हैं । ये लोग बलि, धूप, गंध और परिजनों के साथ उनकी वंदना और भक्तिके लिए जाते हैं ।" “इस कुशलस्थल ( पुर )के निवासी तपस्वियों और तपस्विनियोंके भक्त हैं । वे दिन-प्रतिदिन ( उनके पास ) जाते हैं और दूसरे किसी देवको नहीं मानते |" ॥९॥ १० पार्श्वका तापसको देखने के लिए वनमें आगमन उन वचनोंको सुनकर तीर्थंकर देवने कहा - "हम वहाँ चलें जहाँ ये लोग जा रहे हैं । हम उन मूढ़-बुद्धि तपस्वियों को देखें (और मालूम करें) कि अज्ञानसे उन्हें कैसी शुद्धि प्राप्त होती है ? ये पापकर्मी संसारको भ्रममें डालते हैं । वे धर्महीन न स्वतः को पहचानते न अन्यको । कौतूहलवश हम उनके पास चलें ।" यह कहकर उसने सेना के साथ प्रस्थान किया । निर्मल-शरीर रविकीर्ति और पार्श्व ये दोनों वीर एक ही गजपर आरूढ़ हुए तथा निमिषार्धमें ही उस भीषण वनमें जा पहुँचे। उन्होंने तपस्वियों को तपस्या करते हुए देखा । कुछ तपस्वी पंचाग्निके बीच तपस्या कर रहे थे, कुछ धूम्र या पवनका पान कर थे; कुछ चक्रमें एक पैर डाले हुए थे, कुछ वहाँ ऐसे थे जिनका केवल चमड़ा और हड्डी ही शेष थी तथा वहाँ कुछ ऐसे भी जो जटा मुकुटसे विभूषित थे । ( वे सब ) इस मनुष्य - जन्मको निरर्थक गँवा रहे थे । वे अज्ञानी तप करते थे, परमार्थको नहीं जानते थे, शरीरको यूँ ही यातना पहुँचाते थे तथा सबके सब कुशास्त्रका अध्ययन करते थे ॥ १०॥ ११ अग्नि डाली जानेवाली लकड़ीमें सर्पकी उपस्थिति; कमठके प्रहारोंसे सर्पकी मृत्यु इसी बीच तापके आवरणसे ढँका हुआ कमठ नामका तपस्वी वनमें भ्रमण कर वहाँ आया। वह सिरपर लकड़ियोंका बोझ लिये था तथा हाथमें तीक्ष्ण कुठार । जैसे ही वह लकड़ीको पंचाग्निमें डालने लगा वैसे ही जगत्पतिने उस तपस्वी से कहा“लकड़ीको (अग्निमें ) मत डालो । इसमें सर्प है । वह विशाल, भीषण और दर्पयुक्त हो गया है ।" उन वचनों को सुनकर कमठ रुष्ट हुआ ( और चिन्तन करने लगा ) कि यह वैरी मेरे द्वारा कहीं देखा गया है । इसने हमारे गुरु वशिष्टका उपहास किया है । इस प्रकार बोलनेवाले इस दुष्टको मैं कैसे ठीक करूँ ? ( फिर उसने कहा - ) "इस लकड़ी में सर्प कहाँ है और कहाँ ह विशाल हुआ है ? यह दुर्मुख राजा ( यथार्थमें ) खल स्वभाववाला है । मैं इस लकड़ीको अभी इसके सामने फाड़कर अनिष्टकारी सर्पको देखता हूँ ।" इतना कहकर उसने निश्चित मनसे उसी क्षण हाथमें कुठार लिया । उस हतभाग्य तापस- रूपी-पशुने उस लकड़ीको उन्हीं सबके बीच फाड़ा तो उसमें से विषधर भुजंग निकला । ( उसे देख ) सब सामन्तोंने उस ( कमठ ) को धिक्कारा | सब व्यक्तियोंके द्वारा कमठका उपहास किया गया इससे वह लज्जित हुआ । सब पुरुषोंने पार्श्वसे पूछा कि "आपने सर्प ( की उपस्थिति ) को कैसे जाना ?" ११ ॥ १२ पार्श्व के मनमें वैराग्य - भावनाकी उत्पत्ति; पार्श्वका दीक्षा लेनेका निश्चय मुनियोंने, सामन्तोंने, तपस्वियोंने तथा अन्य व्यक्तियोंने जब कमठका उपहास किया तो वह अभिमान के कारण वनमें अनशन कर तथा जीव-हिंसा और परिग्रहका त्याग कर पंचत्वको प्राप्त हुआ । वह स्वर्गको गया जहाँ वह देवियोंके साथ विचरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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