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१३, १८] अनुवाद
[७७ कन्यापर गरजता हुआ वज्र आ गिरा है । अत्यन्त पापी मैंने रत्नकी हानि की है; हयसेनकी न जाने कौन हानि हुई ? अव कौन सुभट संग्राममें यवनको परास्त करेगा । तुम्हारे जैसे रत्लकी अब कहाँ प्राप्ति होगी ? मुझे छोड़कर, हे देव, तुम कहाँ चले गये; मैं तो तुम्हारी हृदयसे इच्छित सब सेवा करता रहा। इस तुच्छ प्राणीने तुम्हारा क्या किया, जो तुमने मुझे इतना दुख दिया ?" इसी समय मन्त्रियोंने उससे यह कहा- "हे नरपति, रुदन मत कीजिए और शोकको छोड़िए। वह ( पार्श्व ) तो परमेश्वर है, तीर्थकर देव है, परमार्थमें दक्ष है और रहस्यका जानकार है। वह इस संसारके निवाससे कैसे प्रीति कर सकता था जो जरा, मृत्यु, व्याधि और अनेक दुखोंका घर है।"
"हे नरोंमें श्रेष्ठ, तुम मनुष्य हो तथा वह जगका स्वामी देव है। तुम जैसोंका एक स्थानमें निवास कैसे हो सकता है" ॥१५॥
प्रभावतीका विलाप रविकीर्ति दुखी मनसे तथा बन्धुओं, स्वजनों और साथियोंके साथ रोता हुआ नगरमें वापिस आया। उसी समय प्रभावती जगस्वामीकी वार्ता सुनकर मूछित हो गई। "हा दुष्ट विधि, यह कैसा छल, जो तूने जगके स्वामीसे मेरा वियोग किया । क्या तेरे प्रतापसे यही युक्त था जो मेरे प्रियको दीक्षा धारण कराई: क्या तुझमें कोई करुणाका भाव नहीं है जो मुझपर यह प्रहार किया; हे दिव्य विधि, क्या तेरे घरमें कोई नहीं जो तू खल-स्वभावके कारण मेरे (प्रियके पास) पहुँची; अथवा हे दैव, इसमें तेरा क्या दोष है ? यह तो मेरा पूर्व कर्म आ उपस्थित हुआ है। मैंने पूर्वजन्ममें स्वतः ही पाप किया था। उसीसे आज यह भोगान्तराय हुआ है । जो जगके स्वामीकी गति है वही मेरी भी है । अब इस जन्ममें मेरी कोई दूसरी गति नहीं।"
“पार्श्व कुमारको छोड़कर अन्यके प्रति मेरा वैराग्य-भाव है। यशसे उज्ज्वल प्रभावती यही प्रतिज्ञा मनमें करती है" ॥१६॥
दीचाके समाचारसे हयसेनको दुख उत्सुकतापूर्वक बहिनको स्मरण कर दुखी मनसे रविकीर्ति-नृप पार्श्वका समाचार बतानेके लिए अश्व और गजोंके साथ शीघ्रतासे वाराणसी नगरी गया । वहाँ पहुँचकर उसने हयसेन-नृपसे भेंट की। पहले उसने प्रणाम किया और फिर आसनपर बैठा। उसने संग्रामकी पूरी वार्ता तथा जिस प्रकार पार्श्वने महान् दीक्षा ग्रहण की वह वार्ता सुनाई। उन शब्दोंको सुनकर हयसेन नृप पृथिवीपर गिर पड़ा मानो भीषण आघात हुआ हो। चेतना प्राप्त होनेपर वह रुदन करने लगा-"आज मेरे मनोरथोंका अवलम्ब टूट गया । आज मैं असहाय हूँ। आज मैं त्रस्त हूँ। आज मेरी दुनिया सूनी हो गई। मेरा अब कोई नहीं है। मैं क्या वार्तालाप करूँ। यह वार्ता मरणके समान आई है।"
"हे महाबल, तेरे बिना वाराणसी सूनी है । मैं किसकी शरण लूँ ? यह अवनि भाग्य-विहीन है" ॥१७॥
हयसेनको मन्त्रियोंका उपदेश मन्त्रियोंने उस रुदन करते हुए नृपको समझाया-"आप यह पुत्र-प्रेम छोड़ें। जिसका अभिषेक देवोंने मेरुके शिखर पर किया, जिसे श्रेष्ठ पुरुष प्रणाम करते हैं तथा जो घर-द्वार छोड़कर धर्ममें प्रविष्ट हुआ है, वह हे प्रभु, क्या मनुष्य जन्ममें अनुराग रख सकता है ? हे नरेन्द्र, क्या आपने आगम और पुराणों में नहीं सुना कि जिनेन्द्र हुआ करते हैं ? मोक्षके प्रति गमन करनेवाले मनुष्यों और देवोंसे सेवित देवों के देव चौवीस होते हैं। यह तेईसवाँ जिनवर हुआ है, जिसने बाल्यकालमें ही कामदेवको जीता। ये तीथकर देव क्रोध रहित होते हैं। वे कलिकालके दूषण ( दोष ) समूहका नाश करते हैं। इस संसारमें उन्हें कोई लोभ नहीं
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