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८०] पार्श्वनाथचरित
[१४,४अग्रभागपर अपनी आँखें जमा रखी थीं, जिसके लिए शत्रु और मित्र तथा रोष और तोष समान थे, सुवर्ण और मणियोंको धूलिसमान समझता था । वह सुख और दुखको समानतासे देखता था । श्रेष्ठ नर उसकी वन्दना करते थे पर वह मोक्षपर ही ध्यान रखता था। वह ध्यानमें पंचास्तिकायोंका. षटद्रव्योंका तथा तत्त्वोंका चिन्तन करता था तथा प्रमादपर विचार करता था। वह गुण, मार्गणा, आस्रव, लेश्या, भाव, व्रत, ज्ञान, योग, प्रकृतियों के प्रकार, अनियोग, नियोग कषायके मेद, संयम और चारित्र्यका पालन, विवेक, दर्शन, पदार्थ, अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय, ध्यान, शुभ भावनाएँ तथा आगमोंमें वर्णित अन्य जो भी कुछ ( विषय ) थे उन सबके विषयमें चिन्तन करता था।
हजार-कोटि जन्मों तथा नरकवासोंमें जो घृणित कलिकालके दोषोंका संचय हआ था उसे आत्माका चिन्तन करनेवाले और अशुभका नाश करनेवाले उसने एक ही मुहर्तमें नष्ट किया ॥३॥
असुरेन्द्रके आकाशचारी विमानका वर्णन इसी समय एक शुभ्र, उज्ज्वल, विशाल, विजय पताकाओं, घण्टों और घण्टियोंसे युक्त, ऊँचे, मनोहर, आकर्षक, लटकते हुए चामरों और विविध मालाओंसे समन्वित, जिसमें वीणा और मृदंग गम्भीर ध्वनिसे बज रहे थे, जिसमें उत्तम स्त्रियों का समूह नृत्य कर रहा था और गा रहा था, जो गोशीर्ष चन्दनको सुगन्धसे परिपूर्ण था, जहाँ मन्दार कुसुमोंमें भ्रमर गुञ्जन कर रहे थे, जिसकी ध्वजाओंके अग्रभाग सुवर्णसे मण्डित थे, जो आकाश-मार्गमें पवनको गतिसे संचार कर रहा था, जिसका कलेवर अत्यन्त अदभुत कल ( यन्त्र ) से निर्मित था, जिसने देवताओंके स्वर्गकी शोभाको तिरस्कृत किया था, जो रविके तेजके समान चपल था तथा जो अत्यन्त विशाल था, ऐसे एक उत्तम विमानमें आरूढ़ एक असुरेन्द्र नभमें भ्रमण करता हुआ वहाँ आया जहाँ जिनभगवान् विराजमान थे। जैसे ही वह वहाँ पहुँचा वैसे ही उसके लिए (मानो) सौ करोंके द्वारा विध्न उपस्थित हुआ।
विविध किरणोंसे प्रज्वलित तथा गगनको (जैसे कहीं) कुचलता हुआ वह जिनभगवान्के ऊपर पहुँचा। उसी समय मानो मार्गमें किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ तथा तपके भयसे त्रस्त हुआ वह रथ अपनी त्वरित गतिको छोड़ स्थगित हो गया ॥४॥
पार्श्वके ऊपर आनेपर विमानका स्थगन गगनमें चलता हुआ वह रथ विद्याके अनुभव करनेपर पिशाचके समान, जीवके उड़ जानेपर पुद्गलके समान, सूर्यके अस्त होनेपर किरणोंके समान, विपत्ति आनेपर खलके समान, नरके सम्पत्ति-हीन होनेपर वेश्याके समान, मार्गमें जानेपर ऋणी (पुरुष) की पगड़ीके समान, धर्म-शिक्षा देनेपर पापीके समान, बाणोंके गिरते समय धर्मके समान, दुर्जनके बकवास करनेपर सज्जनके
समान, बाँध बँधनेपर पानीके समान, सुभटसे युद्ध करते समय कायरके समान, सुवर्णके भट्टीमें गरम करनेपर मलके समान, शत्रसेनाके संहार होनेपर शत्रु-समूहके समान, फसलके कटनेपर खेतके समान, (प्रधान ) पुरुषके क्षय प्राप्त होनेपर परिजनके समान तथा मूलधनके नष्ट हो जानेपर ऋणके समान गगनमें स्थगित हो गया।
उस शुभ्र और धवल रथको स्थगित और गतिहीन हुआ देख वह मेघमाली ( नामक ) भट क्रोधित हुआ। तेजस्वी देहवाला, शनिश्चरके समान मत्सरयुक्त तथा विरोधी भाव लिये हुए वह इस प्रकार विचार करने लगा ॥५॥
स्थगनके कारणका ज्ञान होनेपर असुरेन्द्रका पार्श्वको मार डालनेका निश्चय
महीतलपर पड़े पंखहीन पक्षीके समान गतिहीन (किन्तु) क्षतिहीन विमानको देखकर वह (असुर ) इस प्रकार विचार करने लगा-यह कैसा आश्चर्य है, क्या उत्पात कालकी कोई सम्भावना है, क्या सम्पत्ति बल तथा अन्य सामग्रीका नाश
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