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पार्श्वनाथचरित
[८, १७युक्त, सुडौल देहवाले इन्द्र पहले जिन-मंगलका उच्चारणकर एवं कलश लेकर चारों तरफ खड़े हो गये। उन्होंने सुवर्ण-निर्मित, उत्तम सुगन्धयुक्त अभिषेक-कलशोंको कुसुमोंसे सजाया ।
तब गुणोंके धारक, सुरों और असुरोंके स्वामी, जिनेन्द्रभगवान्का अभिषेक मेरु शिखरपर आरंभ हुआ। जिनेन्द्रभगवान् सिंहासनपर बिठाए गये फिर जयजयकार ध्वनि हुई जिससे समस्त भुवन गूंज उठा ।।१६।।
सौ इन्द्रोंका उल्लेख अत्यन्त शुभ भावनाको निरन्तर भाते हुए सुरवर जिनेन्द्रके चारों ओर खड़े हुए। भवनवासियोंके जो चालीस (इन्द्र) होते हैं, उन्होंने अभिषेक-कालमें कलश ग्रहण किए । व्यन्तरोंमें अत्यन्त तेजस्वी और अनेक प्रकारसे उत्कृष्ट सब मिलाकर बत्तीस ( इन्द्र) होते हैं । ज्योतिषियोंमें रवि और शशि जो दो प्रधान होते हैं वे जन्माभिषेकके समय समीप खड़े थे। तिर्यञ्चोंमें पंचानन और मनुष्य लोकमें चक्रेश्वर प्रधान होते हैं। इन सबने, जिनकी कि इच्छा सदा पूरी होती है, अभिषेक-कालमें शरीरकी विक्रिया कर एक-एक कलश हाथमें लिया। कल्पवासियोंके ऋद्धिधारी चौबीस इन्द्र होते हैं, इन्हें मिलाकर महान, अत्यन्त सुखी और समृद्ध तथा समस्त जगमें प्रसिद्ध कुल सौ इन्द्र माने गये हैं।
इन सबके बीच सौधर्म ( कल्प) का इन्द्र प्रभुत्वशाली और जगमें वृद्धिशील होता है। वही लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाले तथा शाश्वत पदपर वास करनेवाले जिनेश्वरका अभिषेक करता है ॥१७॥
देवों द्वारा मनाये गये उत्सवका वर्णन उसी समय भव्यजनों एवं अन्यजनोंके मनकी आशा पूरी करनेवाले उत्तम एवं नाना प्रकारके वाद्य बजने लगे। किसी-किसीने धवलशंख फूंके और कोई पटु, ढोल और घंटे आदि असंख्य वाद्य बजाने लगे। किसीने ढफली, भेरी, तांसे या मृदंगपर मधुर ध्वनि की। कोई नव रसों और आठ भावोंसे युक्त महान् भरत शास्त्रका प्रयोग करने लगे। कोई वीणा वाद्यपर आलापने लगे। कोई उत्तम स्वरोंमें अनुराग पूर्वक गाने लगे। कोई पवित्र और त्रैलोक्यमें श्रेष्ठ चार प्रकारके मंगलका उच्चारण करने लगे। कोई उत्तम चौकोर स्वस्तिक बनाने लगे। कोई अनेक फूल मालाएँ गगनमें बरसाने लगे। कोई देव गीतका आलापनकर पूरे जन्माभिषेक ( के समय ) में नृत्य करते रहे । किसीने सुगन्धि-द्रव्य गगनमें छिड़का और उसे मणि और रत्नोंके समूहसे पाँच वर्णका किया। किसीने विचित्र कौतूहल प्रदर्शित किया और किसीने अचिन्तनीय विज्ञान और योगका प्रदर्शन किया।
जिस विज्ञानको वे जानते थे, थोड़ा भी समझते थे या जिसे थोड़ा-बहुत भी पढ़ा था, उसे विशिष्ट समझकर उन्होंने जिनवरके जन्मोत्सवमें दिखलाया ॥१८॥
जन्माभिषेकका वर्णन सुर तथा असुर आदि समस्त देवोंने सुनहले, जल से भरे, मनोहर तथा अत्यन्त आकर्षक कलशोंको उठाया, जयकार किया तथा जिनेन्द्रका अभिषेक किया । कुवलयदलके समान आँखोंवाले देव भरे हुए सैकड़ों, हजारों और लाखों कुम्भ लाने लगे
और अमरेन्द्र उन्हें जिनेन्द्रकी अनेक लक्षणोंसे युक्त देहपर उँडेलने लगे । सुरपतियोंके समान ही अनेक देव अपनी-अपनी देवियोंके साथ कलश लेकर खड़े थे। जब देवोंके साथ मिलकर सुरेन्द्रने जिनेन्द्रदेवको वैभवपूर्वक नहलाया तब मंगल, पवित्र और सुरों तथा असुरोंसे भरे-पूरे पर्वतपर नहलाए गये जिनेन्द्र शोभाको प्राप्त हुए। जिस जलसे जिन-भगवान्का स्नान कराया गया वह कल-कल ध्वनि करता एवं उफनता हुआ पर्वत शिखरपर बहने लगा। लहरियाँ लेता हुआ गिरि-शिखरके
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