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८, १६] अनुवाद
[४५ सूंडसे आवाज करता हुआ वह पानीकी वर्षा कर रहा था, अनेक फूलमालाओंसे भूषित था और रोषपूर्ण था; सोनेकी झाँझोंसे ( उसकी गति ) नियमित थी; (वह) मधुरध्वनिसे युक्त था, भौंरोंके समूहसे व्याप्त था, उसके कान चञ्चल और अस्थिर थे, उसके दाँत सफेद और मूसलके समान थे तथा उसका रंग हिमके समान था ।
मेघके समान गर्जता हुआ, दुर्धर, अत्यन्त मदमत्त, उज्वल और धवल शरीरवाला तथा मदसे विह्वल वह एक लाख योजन प्रमाण विशाल आकारसे (द्वार प्रदेशको) रूँधकर खड़ा हुआ था ।।१३।।
इन्द्रका वाराणसीमें आगमन देवराज उस महागजपर आरूढ़ हुए। सामने ही चार प्रकारके देवोंका समूह खड़ा था । रूप और लावण्यसे संपन्न सत्ताईस करोड़ अप्सराएँ थीं। उस स्वर्गमें जो कामी, अभिमानी, कलहकारी उछल-कूद करनेवाले, वाहन और सेवा करनेवाले, किल्विषक देव थे वे कहीं भी नहीं समा रहे थे। वे स्वर्गके स्वामीका वैभव देखते हुए चल पड़े। स्वर्गमें भिन्न-भिन्न प्रकारके जो दूसरे हीनतेज देव थे, वे उस समय यह चिन्ता कर रहे थे कि इस स्वर्ग-लोकसे कैसे छुटकारा मिले जिससे कि भारतवर्ष में जाकर तपश्चर्या ग्रहण कर सकें जिसके फलस्वरूप दुर्लभ इन्द्रत्वकी प्राप्ति होए। दूसरे जो अनेक ऋद्धिधारी और तपोबलसे महान् देव थे वे यह कह रहे थे कि हमारा यह स्वर्गका निवास सफल हुआ क्योंकि इस कारणसे आज हम जिनेन्द्र के पास पहुँच रहे हैं । इस प्रकार बातचीत करते और चलते हुए वे देव वाराणसी नगरी पहुंचे।
___नाना प्रकारके असंख्य यानों और विमानोंसे पूरा आकाश छा गया। विविध विलास और प्रसाधन युक्त, सुरपतिका वह आवेगपूर्ण सैन्य-समुदाय कहीं भी नहीं समा रहा था ॥१४॥
तीर्थकरको लेकर इन्द्रका पाण्डुकशिलापर आगमन जिन-भवनकी तीन प्रदक्षिणाएँ देकर इन्द्र गगनमें हाथीको रोककर खड़ा हो गया। [ फिर इन्द्रने ] महादेवी इन्द्राणीसे कहा- "भीतर जाकर तीर्थंकर देवको ले आओ।" उस वचनको सुनकर देवी इन्द्राणी प्रभुकी आज्ञासे भवनके भीतर गई। उसने जिनेन्द्रकी माताके चरणोंमें नमस्कार किया फिर बालकको हाथोंमें लेकर बाहिर आई। जिनेन्द्र देवको आते देखकर सब देवगण उसी दिशामें मुँहकर खड़े हो गए। सुरेन्द्रने तीन ज्ञानोंसे भूषित तथा महान् गुणोंके धारक उस बालकको नमस्कार कर ( अपने हाथोंमें ) ले लिया। फिर उस तप और तेजकी राशि, अनेक गुणोंके धारी तथा भुवनपूज्य जिनवरको हाथीके मस्तकपर विराजमान किया। तदनन्तर सरपति आकाशको लाँघता हुआ तथा ग्रह-समूहोंको पीछे छोड़ता हुआ वेगसे चला। जब इन्द्र निन्यानवे हजार योजन आकाश पार कर चुका तब वह प्रकृष्ट मणि और रत्नोंसे दमकते हुए मेरु शिखरपर पहुंचा।
फिर पापका क्षय करनेवाले तथा महामलसे रहित तीर्थकरको पाण्डु शिलापर विराजमान किया (और कहा ) "हे भव्यो, पूर्व जन्ममें अर्जित तीर्थकर-प्रकृतिके फलको देखो" ॥१५॥
___ तीर्थकरके जन्माभिषेकका प्रारम्भ जगमें अजेय, महाबलशाली, रत्नोंसे जगमगाते हुए मुकुटों द्वारा शोभित सुर तथा असुरोंका दल कलश लिए हुए मन और पवनके वेगसे आकाशमार्गको लाँवकर क्षीरसमुद्रको गया। सुवर्ण-निर्मित, एक योजन मुँहवाले, खूब बड़े, निरन्तर जलसे भरे, श्रेष्ठ देवों द्वारा हाथों-हाथ लाये गये कलश बरसते हुए मेघोंके समान मेरु शिखरपर लाए जाने लगे। इस प्रकार क्षीरोदधिसे लेकर मेरु पर्वत तक नभमें सरों और असरोंकी एक पंक्ति बन गई। उस अवसरपर आभरणोंसे अलंकृत, आकर्षक शोभा
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