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पार्श्वनाथचरित
[८, ११तीन ज्ञानोंसे युक्त वह (कनकप्रभ) गर्भमें आया । नौ महीनों तक कुबेरने प्रभुके घरमें असंख्य रत्नोंकी वर्षा की । वाराणसी नगरीमें जो दरिद्र, गतयौवन, भ्रूणसमान अनाथ, क्षुद्र, मित्र और स्वजनोंसे वंचित, दीन और असमर्थ थे उन सबको यक्षेश्वरने धनाढ्य बना दिया । स्वर्ग में जो देव सम्यक्त्व सहित थे वे वामादेवीकी सेवा करते, पुनः पुनः हजारों स्तोत्रोंसे स्तुति करते और हर्ष - पूर्वक विनयसे यह कहते थे - "हे महासती, तुम ही जगन्माता हो । हे माता, (तुम) संसार-चक्रमें फँसे हुओं को धीरज दो। तुम ही एक कृतार्थ और पुण्यवती हो । वे धन्य हैं जो तुम्हारे चरणों में नमस्कार करते हैं ।"
“जिसके गर्भसे सुरों में श्रेष्ठ, सुरभवन से अवतरित, गुणोंसे युक्त, कामरूपी योधाका निवारण करनेवाला पुत्र होगा वह आप सुरों और मनुष्यों द्वारा वन्दित हैं, श्रेष्ठ हैं और जगमें अभिनन्दित हैं || १० ||
११ तीर्थंकरका जन्म
जब चन्द्र अनुकूल, करण और योग शुभ तथा आकाश उत्तम ग्रहोंसे युक्त था; रवि, राहु, शनिश्चर, वृहस्पति, मंगल सब उच्च स्थानोंपर, मित्र गृहों में तथा अनुकूल थे; चारों ग्रह ग्यारहवें स्थानमें तथा सब नक्षत्र और शकुन शुभ और प्रशस्त थे उस समय अपनी कांतिसे चन्द्रको जीतनेवाला, सकल बन्धुजनोंका सुख उत्पन्न करनेवाला, भुवनरूपी गृहको चारों दिशाओंसे प्रतिबोधित करनेवाला, एक हजार आठ शुभ लक्षणोंसे अलंकृत देहवाला; मति, श्रुति और परम अवधिज्ञानसे युक्त, अत्यन्त कल्याणकारी, गुणोंका धारक, रविके तेजका सरलतासे पराभव करनेवाला, मदन योधा ( के मन ) में भय उत्पन्न करनेवाला तथा अत्यन्त शुद्ध शरीरधारी वह गर्भसे बाहर आया मानों अभिनव नलिनीपत्र जलसे निकला हो ।
मनुष्यों और देवोंका मंगल करनेवाले, भव्यजन रूपी कमलों के लिए सूर्य, बहु लक्षणोंके धारक, सकल दोषों का नाश करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् उत्पन्न हुए ||११||
१२
इन्द्र द्वारा तीर्थकरके जन्मोत्सव की तैयारी
जब सब सुरों, असुरों और त्रिभुवनमें श्रेष्ठ, कलिकालकी कलुषता और कषायों को दूर करनेवाले जिनेन्द्र भट्टारक उत्पन्न हुए तब सुरेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ । उसी समय उसने अवधिज्ञान से यह देखा कि मेरा यह आसन क्यों हिला ? यह जानकर कि जिनेन्द्रका जन्म हुआ है, सुरेन्द्र के अंग-अंग में हर्षका संचार हुआ । तत्काल आसन छोड़कर एवं जिनेन्द्रकी दिशा में सात पद चलकर ( उसने ) पृथ्वीपर साष्टांग नमस्कार किया तथा जिन भगवान्का स्मरण कर चरणों में प्रणाम किया । फिर आसनकी ओर मुड़कर तथा उसपर बैठकर सुरपतिने प्रसन्न वदन होकर कहा - " हे सुर, असुर, देव, यक्ष, राक्षस और गन्धर्व, भारतवर्ष में शिव, शुभ और शाश्वत, जगके स्वामी जिनेन्द्र भगवान् का जन्म हुआ है। जिसके प्रसादसे आठ गुणों के धारक हम सुरेश्वरके रूपमें उत्पन्न हुए हैं उस जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक तुम मेरु शिखरपर जाकर करो ।”
सुरेश्वर के मुख से निकले हुए सुहावने और सरस वचनों को सुनकर सब सुर और असुरोंका समूह हाथी, घोड़ा आदि वाहनों सहित जिनवर के जन्मोत्सव में आया || १२ ॥
१३
इन्द्रका वाराणसीके लिए प्रस्थान
अप्सराओंसे घिरा हुआ, चमचमाते वज्रास्त्रको लिए हुए श्रेष्ठ देवों, गन्धर्वों, यक्षों, किन्नरों, यम, वरुण, कुबेर, भवनवासियों एवं पातालवासियों को चारों तरफ किए हुए स्वर्गका स्वामी जब बाहिर आया तो सामने ही ऐरावत खड़ा था । उसकी लम्बी सूँड थी तथा धवल और प्रलयकालीन मेघके समान विशाल शरीर था; उसके अंग-अंग में मद व्याप्त था; चह लटकते घंटों और उत्कृष्ट चमरोंसे शोभित था; वह आकाशमें मदजलका प्रवाह बहा रहा था; उसका शरीर नक्षत्रमालासे भूषित था;
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