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अनुवाद
[६१ स्वामीके प्रसादरूपी महाऋण (को चुकाने ) के लिए अपना सिर देकर कृतार्थ हुए किसी भटका रुण्ड हाथमें तलवार लिये हए घोर संग्रामके बीच नाच उठा ॥४॥
__ यवनराजके उत्कृष्ट भटों द्वारा युद्ध-प्रारम्भ रविकीर्तिके जलन्धर और सिन्ध देशोत्पन्न धीर-वीर श्रेष्ठ योद्धाओंने ( शत्रु ) सेनाको मार भगाया । यक्ष, राक्षस, गन्धर्व आदि देवोंने रणमें प्रहार करनेवालोंकी जयकार की।
( उसी समय ) कोलाहल हुआ और तूर्यकी ध्वनि हुई। भटोंको अपार सन्तोष हुआ तथा गगनमें सुरांगनाओंने विविध रूपसे विशेष नृत्य किया।
यवनराजके अत्यन्त महान् , बड़े प्रतापी और श्रेष्ठ योद्धा क्षुब्ध होकर सामना करनेके लिए दौड़े मानो सुरेश्वर असुरोंकी ओर दौड़े हों।
__ वे ध्वज, चिह्न, छत्र और स्थको नष्ट करते हुए तथा प्रतिपक्षी योद्धाओंमें भय उत्पन्न करते हुए सैकड़ों अस्त्र छोड़ने लगे मानो वे अस्त्र आकाशमें उत्पन्न किये गये भूत प्रेत हों । कोसल, कलिंग, कर्नाट, भृगुकच्छ, कच्छ, कोंकण, बरार, तापीतट, विन्ध्य, डिण्डीर, तरट्ट, द्रविड, आन्ध्र, मलय, सौराष्ट्र आदि देशोंसे जो प्रचण्ड और अत्यन्त रौद्ररूप नृप आये थे वे उस महायुद्ध में संग्राम करने लगे। कोई नृप रुधिरके प्रवाहमें पड़ गया तो किसी दूसरेने अपने भृत्यके द्वारा उसे अलग किया । क्रोधसे जलता हुआ तथा संचार करता हुआ कोई नृप गजके द्वारा आकाशमें फेंक दिया गया । कोई आगे बढ़ता हुआ नृप हाथियोंके दाँतोंसे क्षत-विक्षत हुआ। किसी (नृप) का पैर उखाड़ दिया गया । कोई रथोंसे कुचलकर चूर्ण-चूर्ण कर दिया गया । कोई भट कल्पद्रुमके समान छिन्न-भिन्न किया गया तथा कोई नृप युद्ध में जर्जरित अंग होते हुए भी हाथमें शस्त्र धारण किये हुए पृथिवीपर गिरा।
योद्धाओंके उज्ज्वल सिरोंसे पूर्णतः पटा हुआ रणक्षेत्र शरदकालमें रक्तकमलोंसे आच्छन्न अतः मनोहर सरोवरके समान प्रतीत हुआ ॥५॥
रविकीर्ति द्वारा स्वतः युद्ध-प्रारम्भ जालन्धर एवं सैन्धवोंने कुशलतासे भीषण युद्ध किया पर अन्ततः पीठ दिखलाई, इससे रविकीर्ति लज्जित हुआ, अथवा कर्नाटकों और मरहठोंके द्वारा इस पृथिवीपर कौन नहीं जीता गया ?
युद्ध में सेना नायकोंको परास्त हुआ देख प्रभावतीका अभिमानी पिता ( रविकीर्ति ) रथको आगे बढ़वाकर शत्रुसे सिंहके समान युद्ध करने लगा।
"हे सामन्तो, सेनाकी पराजय स्वीकार मत करो । इस प्रकारके कलंकसे अपनी रक्षा करो । जो सुभट निरन्तर विपक्षमें हैं वे बन्दी होकर क्या करेंगे ?"
शक्रवर्मा नृपतिका पुत्र भानुकीर्ति देखनेमें सूर्यके तेजके समान था । वह उज्ज्वल-कीर्ति तथा अभिमानसे युक्त था। उसने शत्रओंका नाश किया था और कीर्ति प्राप्त की थी। वह मन्दारगिरिके समान अचल तथा सागरके समान धैयसे युक्त था। वह अग्निके समान तत्क्षण प्रज्वलित होनेवाला तथा अपने सेवकोंकी रक्षा करनेमें भगवतीके समान था। वह अंकुशरहित गजके समान आगे बढ़ा। वह सिंहके समान अदमनीय, नागके समान दुस्सह एवं भयंकर, यमके समान तीनों लोकोंका नाश करने में समर्थ, शशिके समान सकल कलाओंसे समन्वित तथा पवनके समान स्वच्छन्दतासे गमन करनेवाला था। वह मेघके समान गर्जना करता हुआ दौड़ा तथा देवोंकी सेनाके समान कहीं न समाया ।
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