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५०] पार्श्वनाथचरित
[६,४सुगन्धिद्रव्य, आभरण, तरह-तरहके सुगन्धयुक्त कुसुम आदि जो भी जिन भगवान्को लाभदायक था, इन्द्र उस वस्तुको लाकर अर्पण करता था। केवल शीतलवायु ही जिनेन्द्रकी ओर बहती थी। सूर्यको किरणोंका समूह दूरसे ही गमन करता था। तीर्थङ्कर प्रकृति के कारण विशेषता-प्राप्त वे ( जिनभगवान् ) अपनी कान्तिसे सभीको प्रकाशित करते थे।
(वे) सहस्रों स्वजनों तथा मित्रों और विरोधी पुरुषोंसे नमस्कृत थे। (इस प्रकार ) जगत्पतिके तीस वर्ष देवों के साथ क्रीडा करते हुए व्यतीत हुए ॥३॥
___हयसेनकी राज-सभामें अनेक राजाओंकी उपस्थिति किसी एक दिन समृद्धिशाली राजा हयसेन केयूर, हार और कुण्डलधारी राजाओंके साथ सभाभवनमें इन्द्रके समान विराजमान थे। उनके पश्चात् ही अन्य राजा उसी प्रकारसे आये जिस प्रकार इन्द्रके पीछे-पीछे ही लोकपाल देव आते हैं। अविचल अभिमानवाले तथा शत्रुओंके लिए सिंह समान वे राजा सिंहासनोंपर बैठे। भूटानके राजा, राणा, हूण, जाट, गुर्जर, खस, तोमर, भट्ट, चट्ट, हरिवंशोत्पन्न, दहिया, सूर्यवंशीय, मुंडिय नृप, मौर्यवंशी, इक्ष्वाकुवंशी, सोमवंशी, बुद्धराज, कुलिक छिंद, पमार, राठौड़, सोलंकी, चौहान, प्रतिहार, डुण्ड ( राज), कलच्छुरी, भयानक शकोंका विजेता चंदेला, रणकी इच्छा करनेवाले तथा रिपुका दलन करनेवाले भट्टिय, चावण्ड, बलशाली मल्ल, टक्क, कच्छाधिपति, सिन्धु नरेश, कुडुक्क तथा,
___अन्य दूसरे अनेक राजा जो धवलयशसे सुशोभित, उत्तम कुलोत्पन्न, परमयोद्धा एवं भुजबली थे, वे राजा (हयसेन) के सभा भवनमें उपस्थित थे॥४॥
राजसभाका वर्णन राजाकी वह रंगविरंगी सभा मानसे अलंकृत और जनोंसे शोभित थी। वह पराजयसे परे, धनसे संपूर्ण भयसे रहित. कायरतासे दूर तथा नयसे युक्त थी। वह सर्वदा उज्ज्वल, मानरूपी चन्द्रको धारण करनेवाली, वैरियोंके लिए सिंहके समान तथा अमोघ थी। सहस्रों संग्रामोंमें उसका नाम ऊंचा रहा था। उसने शत्रुआक प्रदेश, नगर और ग्रामीको जीता था। वह झिलमिल करते मणियोंके हार और मुकुटोंसे शोभित, खलवृत्तिसे दूर, और अनेक गुणोंसे युक्त थी; अवसरपर ही बोलनेवाली एवं अपने कार्यपर ही विचार करनेवाली थी; दूसरोंका कार्य निपटाने में कुशल, स्थिर और नम्र थी; चन्दनके लेपसे अत्यन्त सुगन्धित तथा अनेक कुसमोंके समूहसे अत्यधिक सुवासित थी एवं आलापणी, काहल, वंश और तूर्य तथा मुनिछंदमें बद्ध उत्कृष्ट गीतोंसे गुञ्जायमान थी। राजा (हयसेन )की वह सभा इस प्रकारकी थी, जो देखनेवाले व्यक्तिके मनमें सुख उत्पन्न करती थी।
__ जयश्रीसे आदर-प्राप्त तथा राजाओंसे घिरे हुए महाराज (हयसेन) सभामें उसी प्रकार शोभायमान होते थे जैसे शरद् ( ऋतुकी) रात्रिमें तारागणोंसे घिरा हुआ नभस्थित चन्द्रमा ॥५॥
राजसभामें दूतका आगमन इसी समय गुणोंका सागर, बुद्धिमान् , शास्त्रार्थ विचक्षण, भक्तिमान् , गम्भीर, धीर, सकल कलाओंसे युक्त, न्यायवान् , भव्यभावनायुक्त, गुणोंका धारक, दूसरेके चित्तको समझनेवाला, उत्तर देनेमें विदग्ध, प्रियभाषी, मधुर स्वरयुक्त, गुणोंका जानकार, कुलमें ऊँचा, परसैन्यमें भेद डालने में दक्ष, अपने स्वामीकी प्रशंसाका लक्ष्य रखनेवाला, क्षोभ-हीन, आलस-रहित, प्रामाणिक, चाणक्य और भरतके शास्त्रोंको जाननेवाला, अनेक देशोंकी भाषाओंकी विशेषताओंसे परिचित, दृढ़, निष्कपट, महामति, पवित्र (मति ), चारुवेशधारी, अत्यन्त उज्ज्वल एवं उत्तम कुलमें उत्पन्न ब्रह्मबल नामका दूत धवलवस्त्र धारण कर सैकड़ों उपहारों के साथ हयसेनके सभा-भवनमें आया । प्रतिहारीके द्वारा सूचना भेजकर वह प्रविष्ट हुआ तथा सम्मानपूर्वक उपयुक्त आसनपर बैठा ।
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