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पार्श्वनाथचरित
[ १०, १४सरिताओं को निरन्तर देखते हुए तथा नगर-समूहों को पार करते हुए वह जिनवर उस नगरीके समीप आकर रुका जहाँ नरश्रेष्ठ भानुकीर्ति निवास करता था । कन्नौजका वह स्वामी इस समाचारको सुनकर हर्षित होता हुआ सीधा वहाँ आया । सामन्तों साथ उस भानुकीर्तिने देवों और असुरों द्वारा नमस्कृत पार्श्वको प्रणाम किया । उसका एक ही तो भानजा था, सो भी पृथिवीका स्वामी, जगत्का गुरु और परम जिनेश्वर ।
उत्तम पुरुषोंने प्रणाम करते हुए रविकीर्तिकी प्रशंसा की, अथवा सोच-विचारकर कार्य करनेवालेकी भलाई ( सब ) चाहते हैं ॥१३॥
१४ रविकीर्ति द्वारा पार्श्वका स्वागत
राजा रविकीर्तिने अपनी भुजाओंसे लक्ष्मीके धारक पार्श्वका आलिंगन प्रसन्नतापूर्वक किया फिर यह कहा - ' "मैं आज अत्यन्त कृतार्थ, विजयी, बली और जगमें महान् हूँ जो बहुत समयके बाद मैंने आज गुणोंसे श्रेष्ठ तुम्हारा मुख-कमल देखा । राजा हयसेन पुण्यवान् है जिसका तुम जैसा महान् पुत्र हुआ है ।" रविकीर्ति इस प्रकार गुणानुवाद कर जगत् के स्वामीको लेकर अपनी सेनाकी ओर गया । उसने गंगा नदीके तीरपर हय, गज और योधाओंसे प्रबल पूरे शिविरको ठहराया । देवोंने जगत्पतिके लिए अनेक मणियों और रत्नोंसे पटा हुआ पंचरंगा गृह निर्माण किया; सभा भवन, ऊँचा मण्डप, सुन्दर भोजन- गृह तथा स्नान - गृह भी बनाए । हयसेनके पुत्रने सामन्तों, मित्रों, स्वजनों तथा भृत्यों सहित उसमें निवास किया ।
कुमारका आगमन सुनकर यवनराज आशंकित हुआ तथा जिसकी देह श्रीसम्पन्न है ( पउमालिंगियदेहउ ) वह रविकीर्ति अपनी सेना के साथ सन्तुष्ट हुआ || १४ |
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॥ दसवीं सन्धि समाप्त ॥
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