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नौवीं सन्धि
बालकका अभिषेक कर सब देव और असुर अपने-अपने घर चले गये । राजाके तथा अन्तःपुरकी स्त्रियों के मनमें सन्तोष हुआ ।
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यसेन के राजभवन में जन्मोत्सव
बालकके अंग गोशीर्ष चन्दनसे चर्चित थे । कामदेव के समान ( सुन्दर) उस बालकको देखकर परमेश्वरी वामादेवी सन्तुष्ट हुई। उन्होंने उसे अपने हाथों में लिया, छातीसे लगाया और उसका चुम्बन किया । सब बन्धु बान्धवों को भी इससे सन्तोष हुआ तथा समस्त नगर-निवासियोंको आनन्द हुआ। दूसरे राजाओंने तथा देवोंने वीर हयसेनको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया एवं बधाई दी । यह समाचार सुनकर अन्तःपुरकी स्त्रियाँ हर्षित हुई । अनेक चारण ( हयसेन के ) राजमहल में आकर स्तुति -पाठ करने लगे । स्त्रियाँ इस नये कौतुकसे रोमाञ्चित हो नृत्य करने लगीं। अच्छे स्वरसे तूर्योके बजने तथा नूपुर ( पहिने हुए ) नर्तकियोंके आनन्द विभोर होकर नाचनेसे कानोंमें अन्य कुछ भी सुनाई नहीं देता था । ऐसा प्रतीत होता था मानों संसार बहिरा कर दिया गया हो ।
जिनभगवान् के जन्मोत्सबमें समस्त संसारने नृत्य किया, ( उस कारण से ) टूटे हुए हार, केयूर और रत्नोंसे पृथ्वी भर गई ॥१॥
२
सेनकी समृद्धि
अनेक पुरों और नगरोंसे भरी-पूरी यह पृथिवी हयसेनके अधिकारमें थी । जो भी कोई वैरी विरोधमें थे वे भी हयसेन को प्रणाम करने लगे । जो राजा सीमाप्रान्तों में निवास करते थे वे हयसेनका स्वामित्व मानते थे । बलवान् राजा और श्रेष्ठ पुरुष भेंट लेकर आते और प्रणाम करते थे । समुद्र, पर्वत, अन्य द्वीपों और देशों में औषध, धन, धान्य, स्वर्ण, शस्त्र, मणि-रत्न, नाना प्रकारके वस्त्र, शय्या, आसन, भोजन तथा खान-पानकी सामग्री, रस, कुसुम, लेपन, उत्तम यान, हाथी, घोड़े, बैल, बछड़े आदि जो कुछ भी था वह दिन-प्रतिदिन हयसेनको प्राप्त होता था । ( इससे ) वाराणसी नगर में समृद्धि आयी । वहाँके निवासियोंने सैकड़ों उत्सवोंसे अपनी श्री वृद्धि की ।
राजा हयसेनका महल धन-धान्य, सम्पत्ति और यशसे परिपूर्ण हुआ । लोगोंसे भरा-पूरा वह (महल) तरंगों से युक्त समुद्र के समान शोभा पाता था || २ ||
३
तीर्थंकर द्वारा बाल्यावस्था पारकर इकतीसवें वर्ष में प्रवेश
परमेश्वर जिनदेव उसी तरह बढ़ने लगे जिस प्रकार से शुक्लपक्षमें नभस्थित चन्द्रमा कलाओंसे बढ़ता है । वे मातापिता और अन्य जनोंको आनन्द देते और स्वयं अपने अँगूठेसे अमृताहार ग्रहण करते थे । बालक होकर भी बालकों जैसी क्रीडा नहीं करते थे । दूसरोंको पीड़ा देने की बात स्वप्न में भी नहीं सोचते थे । जिस-जिस वर्षमें ( उन्हें ) जिस-जिस वस्तुकी चाह होती, उस-उस वस्तुको देवतागण लाकर प्रस्तुत करते थे । कन्दुक, चपल घोड़े, • सुन्दर रथ, मदमाते हाथी, आहार, लेप, वस्त्र
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