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प्रस्तावना
गउ अच्चुवकप्पे महाविमाणि । मणि-किरण-जोइ दिवि दिवि महाणि । ४. ११. ७. . अक्खीण-महाणसु मुणिवरु बहु-विह-रिद्धिहि जुत्तउ ७. ७. ९ । रवि-किरणहि भुअणु असेसुवि गिंभयालु संतावियइ ६. १०. ११, दुप्पक्ष-दक्षु कय विज खग्गु ६. १२. ५ .
उक्त चार उदाहरणों में क्रमशः जोइ, महाणसु गिंभयाल तथा दक्षु में करण के लिए कर्ता विभक्ति का उपयोग हुआ है। ( ) अपादान के लिए -
परधणु ठियउ परम्मुहु जहँ मणु १८. ६. ६; 'धणु में अपादानके लिए कर्ता विभक्ति आई है । (iii ) संबंध के लिए
जह गयउ पुरोहिउ मोक्ख-जत्त १. १२. २: जत्त में संबंध के लिये कर्ता विभक्ति आई है। (iv) अधिकरण के लिए
वजंत तूर मंगल रवेण । हयसेणहो घरू पाविउ कमेण । ८. २३. ५ पंच खंड तहि मिच्छह वसहि दुपेच्छहँ १६. १०. १०.
पुणु आरण-अच्चुव सुरमहा। कीडंति बीस दुइ सायराई ॥१६.६.६ । इन तीनों में क्रमशः वजंततूर पंचखंड तथा अच्चुव में अधिकरण के स्थान पर कर्ता विभक्ति आई है। (आ) कर्म विभक्ति(i) सत्त दिवह जलु पडियउ । १४. २३. १० में दिवह में कर्म, विभक्ति संस्कृत के नियम ‘अत्यंतसंयोगे
द्वितीया के अनुसार आई है। ( , गदान के लिए :
तिहि भुअणहि आणेवि दइएँ तंपि पंउजियउ ५. ३. १० । गंगा गईउ णीसरिउ तेहिं ।
तिहि भुअणहि तथा तेहि में अपादान के स्थान में करण विभक्ति आई है। (iii) अधिकरण के लिए
संचारिवि को वि पहु मयगलेण । रोसारूणु घल्लिउणहयलेण ११. ५. १४–णहयलेण में अधिकरण के लिए करण
विभक्ति आई है। (ई) संबंध विभक्ति- इसका क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है । यह अनेक कारक विभक्तियों के लिए प्रयुक्त की गई है यथा(i) कर्म के लिए
णिव्वाणइ वंदई जिणवराहँ, ३. १६. ६ । जउणहो णवेवि - ११. ९. १५ । कहि गयउ धुरंधरू महु मुएवि १३. १९. ९-- उक्त तीनों उदाहरणों में क्रमश: जिणवराहँ, जउणहो तथा महु में संबंध विभक्ति कर्म के लिए
प्रयुक्त हुई है। (ii) करण के लिए
बहु-रयणहँ भरियइँ ०-६. ८. ७ भुव-बलिहे जिणिवि दप्पुब्भडु पास-परिंदे बद्धउ ११. १. २. रविकित्तिहे सहु
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