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२,९] अनुवाद
[१३ "पिता, माता, भाई और मित्र इन सबके बीचमें रहनेवाले मनुष्यको भी यम चुटकीमें ही ले जाता है और चारों गतियोंमें घुमाता है" ॥६॥
गृहस्थाश्रमकी निन्दा, दीक्षाकी सराहना एक बात और है; वह यह कि कोई कुशल ( व्यक्ति ) यह विश्वास करा दे कि मृत्यु नहीं है तो मैं निश्चिन्त होकर राज्य करता रहूँगा और फिर प्रव्रज्यासे मेरा कुछ प्रयोजन नहीं रहेगा। गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी यदि मोक्ष प्राप्त होता हो तो दुखकारी प्रव्रज्याको क्यों ग्रहण किया जाये ? परमार्थकी दृष्टिसे गृहस्थाश्रममें कोई गुण नहीं है इसीलिए विद्वान् पुरुष जिनवर दीक्षा ग्रहण करते हैं । भरतादि नरेश्वर घर त्यागकर जिनवर धर्ममें व्रत और नियम लेकर तथा पंचेन्द्रियोंकी साधनाकर मोक्षको प्राप्त हुए । ऐसी प्रव्रज्या दोषपूर्ण कैसे हो सकती है ? जो अत्यन्त असमर्थ, व्यसनासक्त और अशक्त होते हैं तथा तप नहीं कर सकते वे खल पुरुष प्रव्रज्याकी निन्दा करते हैं और अनेक दुस्सह ( दुखोंको सहते हुए भी ) वहीं (गृहस्थाश्रममें ) रहते हैं; स्वयं नष्ट होते हैं और दूसरोंका विनाश करते हैं एवं अनेक तोंसे भ्रममें डालते हैं।"
"जो कुधर्म और कुतीर्थके मोहमें पड़े हैं तथा विविध कुतोंके जालमें फँसे हैं वे भय, मद ( इत्यादि ) दोषोंसे परिपूर्ण इस संसार सागरमें डूबते हैं" ॥७॥
अरविन्दका जीवकी अमरतापर विश्वास "इसके अतिरिक्त आपने जो संशयकी बात कही है उसको भी मैं स्पष्ट रूपसे कहता हूँ। उसे आप सुनें। इस लोकमें तप करते हुए मुनिश्रेष्ठ दिखाई देते हैं। वे परलोकविरोधी कार्योंका परिहार करते हैं। पूछनेपर करोड़ों जन्मोंके बारेमें बताते हैं । ( वे ) न संशयास्पद बात कहते हैं और न ही असत्य । इसके अतिरिक्त महीतलपर अनेक ग्रह, राक्षस, भूत और प्रेत प्रत्यक्ष रूपसे भ्रमण करते दिखाई देते हैं। वे अपने-अपने पापकर्मोंका फल भोगते हैं; जन्म वृथा गँवाते हैं तथा अनेक दुःख सहते हैं । घर-घरमें फिरते हुए वे जन्मान्तरका विश्वास स्वयं करते हैं । जगमें पाप और पुण्य प्रकट रूपसे दिखाई देते हैं। जीव (अपने) कर्मानुसार उनका फल भोगता है । शुभ और अशुभ दोनोंका ही अनुभव करता है। नानाविध पुद्गलोंको स्वयं ग्रहण कर यह अजर और अमर जीव अनादि कालसे कर्मजालमें पड़कर बहुत भटक रहा है।"
"जब आज भी केवली दिखाई देते हैं और साधुओं द्वारा शील धारण किया जाता है तब, हे राजाके मन्त्रियों, मनमें शंका कैसे की जाए " ॥८॥
अरविन्दको दीक्षा ग्रहण करनेसे रोकनेका प्रयत्न राजाको दीक्षामें दृढ़ देखकर मन्त्रीने प्रणाम कर कहा-"हमने तो आपके विरहसे भयभीत होकर दीक्षाकी निन्दा की है। जिन धर्मसे मोक्ष प्राप्त किया जाता है तथा ( उससे ) अविचल और परम सुखकी निश्चित रूपसे प्राप्ति होती है। ( इस प्रकार ) जिनशासनमें कोई संशय नहीं । तो भी, हे प्रभु, हमने जो कहा सो करिए। आज आपका पुत्र निरा बालक है। उसका यह समय राज्य सँभालनेका नहीं है । अभी भी वह युद्ध (विद्या ) अच्छी तरह नहीं जानता। अतः वह राज्यभार कैसे सँभाल सकेगा? वह राजशिक्षा अब भी नहीं जानता इसलिए हे प्रभु, दीक्षा ग्रहण करनेसे रुक जाइए। मुनियोंने जिस तरह मद्यका परिहार किया है उसी तरह शास्त्र और पुराणों द्वारा बाल-राज्यका परिहार किया है।"
“जहाँ महिला स्वामी हो, राजा बालक हो तथा मन्त्री मूढ़ और अज्ञानी हों वहाँ इन तीनों में से एकके भी राज्य चलाने पर मुझे भय लगता है" ॥९॥
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