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अनुवाद ज्वर, शोष, आँव, खाज, खुजली, उदर रोग, शूल, शिरोवेदना, दाह, घुन तथा आँख, मुँह और सिरकी पीड़ा तथा अन्य रोगोंसे
पीडित हआ पर इस शरीरका किसी भी प्रकार अन्त नहीं हुआ प्रत्युत दुःखसे कुछ उबरा। तदनन्तर, साँप, बिच्छ आदिके रूपमें नाना प्रकारसे मृत्यु आई। अपमृत्यु भी अग्नि, शस्त्र, जल, इनके समान अन्य वस्तु, साँप, विषैला, भोजन, ग्रह, भूत, क्षुधा तृष्णा तथा सदा वर्तमान व्याधि आदि नाना रूपसे हुई।"
"मनुष्य गतिमें अनेक प्रकारकी अपमृत्यु स्पष्ट रूपसे चलती फिरती है। व पूरे महीमण्डलमें कहीं भी निवास करनेवाले मनुष्यको नहीं छोड़ती" ॥१३॥
देवगतिके कष्टोंका वर्णन जब मैं देवों के बीच उत्पन्न हुआ तब भी मैंने मानसिक दुःख सहा । देवोंको तपके फलसे स्वर्गमें उत्पन्न होते, सब वस्तुओंसे परिपूर्ण होते, दिन प्रतिदिन देवियोंके साथ क्रीडा करते तथा विविध सुखोंको भोगते हुए देखकर मुझे घोर मानसिक दुःख हुआ । उसे सागर और पल्यके प्रमाण तक सहन किया। मिथ्यात्वका वृथा फल भोगता हुआ तथा कुयोनि देवोंके बीचमें निवास करता हुआ मैं मानसिक दुःख भोगता रहा । केवलिको छोड़ अन्य कौन उसका वर्णन कर सकता है ? अन्य तपके कारण मैं देवकुलका अधिकारी हुआ किन्तु कान्तिहीन देवके रूपमें उत्पन्न हुआ । मैं तारा, नक्षत्र आदि इन पाँचोंमें, राक्षस, भूत किन्नर, गरुड़, महोरग (आदि व्यन्तरों) में तथा असुर कुमार आदि अनेक देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार मुझे जो दुःख नरकमें हुआ वही यहाँ (स्वर्गमें ) भी हुआ।
__ अशुभ ( कर्म ) की परम्परासे सन्तप्त मैं चारों गतियोंमें दुःखी रहा । विषयोंमें डूबा हुआ मैं जन्म और मरणसे पीडित भटकता हुआ फिरा ॥१४॥
अरविन्दका निष्क्रमण प्रज्ञा चक्षु द्वारा सब कुछ जानकर समस्त परिजनोंको समझा-बुझाकर, अनेक माणिक्य, रत्न और मोतियोंसे कमनीय राजपट्ट (अपने) पुत्रको बाँधकर, सभी पौरजनोंकी अनुज्ञा लेकर तथा यह कहकर कि मेरे मनमें कोई सल नहीं रही, मैं क्षमा किया जाऊँ, वह इस वैभवके नगरसे निकला मानो स्वर्गसे सुरपति निकला हो। वह नन्दनवन सदृश फल और फूलोंसे परिपूर्ण विशाल उपवनमें गया। वहाँ उसे पिहितास्त्रव नामका भट्टारक मुनि, जो त्रिगप्ति और नियमोंसे युक्त था, दिखाई दिया। उसे प्रणामकर राजाने उससे कहा-“मुझे दीक्षा दीजिए, इसमें देर न कीजिए। कोई विघ्न उपस्थित होने, वृद्धावस्था आने या आयु समाप्त होनेके पूर्व ही, हे मुनिश्रेष्ठ, हे परमेश्वर, भयमद आदि दोषोंसे रहित तथा सकल सुरों और असुरों द्वारा पूजित आप मुझे दीक्षा दें" ॥१५|
अरविन्द द्वारा दीक्षा ग्रहण । उस परमज्ञानी मुनिश्रेष्ठने उन वचनोंको सुनकर राजासे कहा-"तुमने परलोक और संसारके रहस्यको समझकर तथा पवित्र जिनवचनोंपर विचारकर इतना महान निश्चय किया है। तुम धन्य हो, तुम सदाचारी हो, तथा तुम पुण्यात्मा हो । तुमने युवावस्थामें राजका त्यागकर साधुतापूर्वक परमार्थ कार्य ग्रहण किया है। हे पुत्र, तुम्ही एक प्रशंसाके योग्य हो, जिसने पृथिवीका एकछत्र (राज्य) छोड़कर दीक्षा ली। हे धीर, तुम जिन भगवानका स्मरण कर संसार-सागरसे पार उतर जाओ।" इन वचनोंको सुनकर राजा अरविन्दने (अपना) महान् विचार कहा । उन्होंने केयूर, हार, कुण्डल आदि समस्त शोभनीय आभूषण और वस्त्र उतारकर पाँचों इन्द्रियों और मनके प्रपञ्चको छोड़कर ( अपने ) सिरसे पाँच मुट्ठी केश लुञ्च किया । श्रेष्ठ पुरुपोंके साथ पद्ममुख अरविन्द इन्द्रियोंके आकर्षक (विषयों) को छोड़कर दीक्षामें स्थित हुए ॥१६॥
॥ दूसरी सन्धि समाप्त ॥
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