________________
३६]
पार्श्वनाथचरित
"अपार संसारकी गलियों में पुण्य तथा पापरूपी दो खिलाड़ियों द्वारा जैसे कहीं पुकारा गया एवं प्रेरक कषायों द्वारा उकसाया गया यह जीव भटकता फिरता है" ॥१६॥
कनकप्रम द्वारा अपने पुत्रको राज्य-समर्पण "प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार भिन्न-भिन्न प्रकारके बंधों द्वारा यह अति दारुण कर्म अनेक कारणोंसे अनादिकालसे निबद्ध होता आया है।"
तत्पश्चात् ( मुनि ने ) चौदह गुणस्थानोंको मार्गणा और जीव-समासके साथ बताया। साथ ही योग, कषाय, लेश्या, ध्यान, तत्त्व, द्रव्य, दया, अंग, पूर्व, तप, संयम, करण, दर्शन, आयुप्रमाण तथा सागर, द्वीपक्षेत्र और पर्वतोंका मान इन सबके बारेमें भी जिनवरने उस दर्शनरत्नसे विभूषित देहवाले राजाको बताया। वह नरश्रेष्ठ चक्रेश्वर कर्मप्रकृतियों के विषयमें सुनकर लोगोंके साथ घर लौटा। वहाँ मंगलतूर्यके निर्घोषके साथ अपने पुत्रको संतुष्ट मनसे राज्य देकर वह कनकप्रभ राजा घर छोड़कर त्रिभुवनके स्वामी उन केवलीके पास आया। सुरों और असुरों द्वारा नमस्कृत तथा स्वर्ग, मर्त्य और पाताल ( वासियों ) द्वारा प्रशंसित (मुनिके) चरणों में प्रणाम किया ( और कहा )
"हे परमेश्वर, हे केवलज्ञानधारी, कलिकालके समस्त दोषोंका नाश करनेवाले, आप मुझे अपने हाथका सहारा देकर इस घोर संसार-सागरके पार उतारिए । ॥१७॥
कनकप्रभ द्वारा दीक्षा-ग्रहण सब श्रेष्ठ देवों द्वारा बंदित तथा जगमें निंदासे रहित उस परम आत्मा तथा केवलज्ञान-प्राप्त साधुने पूरे संसारको अभय प्रदान करते हुए यह कहा
"हे सुभट, वीर चक्रेश्वर, नरकेसरी, पृथिवीके स्वामी, तुम कलंक-रहित तथा व्रत, संयम और चारित्र्यसे युक्त जिनदीक्षा ग्रहण करो।" यह सुनकर उस पृथिवीके प्रमुख राजाने जिनवरके चरणोंमें प्रणाम किया । तदनन्तर कनककी प्रभाके समान प्रभावाले उस कनकप्रभने पूरी पृथिवीका त्याग कर जिनदीक्षा स्वीकार कर ली। गुणोंसे महान् अन्य नरश्रेष्ठ पृथिवीपालकोंने भी जिनदीक्षा ग्रहण की । अन्तःपुर ( की स्त्रियों ) ने भी न पुर आदि समस्त आभूषणोंका त्यागकर जिनदीक्षाको स्वीकार किया । दीक्षा ग्रहणकरनेवाले अनेक नरश्रेष्ठों द्वारा मुकुट आदि जिन आभूषणों और रत्नोंका त्याग किया गया उनसे पूरा एक योजन पृथिवीतल भर गया।
विभिन्न प्रकारके मणियों और रत्नोंसे समस्त पृथिवीतल शोभाको प्राप्त हुआ। वह (पृथिवीतल) इस प्रकार शोभा पा रहा था मानो मानसरोवर पद्मोंसे शोभित हो ॥१८॥
॥ छठवीं सन्धि समाप्त ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org