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पार्श्वनाथचरित
चौदह पूर्वांगोंमें वस्तुओंकी संख्या प्रथम पूर्वमें दस वस्तु कही गई हैं तथा दूसरेमें जिन भगवान्ने चौदह बताई हैं। तीसरेमें आठ वस्तु हैं और चौथेमें अटारह वस्तु रखी गई हैं । पाँचवें और छठवेंमें बारह-बारह हैं तथा सातवेंमें सोलह । आठवेंमें बीस वस्तु निबद्ध हैं और नौवेंमें तीस । जिनागममें जो दसवाँ पूर्व कहा गया है, उसमें पन्द्रह वस्तुओंका निर्देश है। शेष जो चार पूर्व हैं उन प्रत्येकमें दस-दस वस्तुएँ हैं। इस प्रकार इन सब वस्तुओंकी संख्या एक सौ पंचानवे है। आगमोक्त प्रत्येक वस्तुमें पाहड़ोंकी संख्या दसदस है। _ भिन्न-भिन्न अथोंसे शुद्ध तथा आगममें बताई गई प्रसिद्ध ( इन वस्तुओं में ) पाहुड़ोंकी संख्या तीन हजार नौ सौ है । मुनिवरने उन सबका श्रवण किया ॥४॥
कनकप्रभकी तपश्चर्याका वर्णन दयाशील एवं साधुस्वभाव कनकप्रभ मुनि जिनभवनों की वन्दना करते हुए भ्रमण करते थे। अपनी पूरी शक्ति और बलसे वह महामुनि समस्त तपश्चर्या करते थे। उपवास, चन्द्रायण ( व्रत ) तथा छह (दिन ) आठ ( दिन ) पक्ष और माहका भोजन छोडकर आहारग्रहण करते थे । छह मासका क्षपनत्रत तथा योगकी क्रियाएँ करते थे। रसोंका त्याग तथा नाना प्रकारकी विधियोंका पालन करते थे। इस प्रकार वे महाबुद्धिशाली विमलचित्त मुनि आभ्यंतर और बाह्य दोनों प्रकारका तप करते थे। उनका आहार छयालीस दोषोंसे रहित था। यथासमय उन्होंने मन, वचन और कायकी अशुभ प्रवृत्तियोंका परिहार किया । उन्होंने ( सम्यक्त्वके ) दोषों और अन्तरायोंको मनसे निकाल दिया । वे तीन प्रकार (मन, वचन और काय) से संयम और योगका पालन करते थे। इस प्रकार वे परम देव तीर्थंकरोंके आदरपूर्ण वचनोंका तीनों प्रकारसे परिपालन करते थे।
वे महामति (मुनि) छह कारणोंसे भोजन ग्रहण करते तथा छह कारणोंसे ही भोजनका त्याग करते थे। वे मुनि उपवासके द्वारा कामको जीतते तथा सब परीषहोंको सहन करते थे। ॥५॥
कनकप्रभ द्वारा मुनिधर्मका पालन वे मुनि स्वतः को उत्तम पद पर स्थापित करते हुए पंद्रह प्रकारके प्रमादका परिहार करते थे; मुनि संघकी सेवा सुश्रूषा तथा दस प्रकारकी भक्ति भावपूर्वक करते थे; अशक्त, रोगग्रस्त, बालकों और क्षुधा तथा व्याधि-पीडितोंकी परिचर्या में अत्यधिक समय व्यतीत करते थे; मुनियों, श्रावकों, जैनधर्मके अनुयायियों तथा स्वर्ग एवं मोक्षमें मन स्थिरनेवालोंके प्रति अनुराग रखते थे तथा जो धर्मसे भ्रष्ट हो जाते थे उन्हें पुनः धर्म ग्रहण कराते थे। शंकादि बुरे दोषोंको दूर करते हुए वे इनके द्वारा दर्शनविशुद्धि किया करते थे तथा तीथकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाली सोलह कारण शुभ भावनाओंको भाते थे। अपनी आयुके शेष तीन भागोंमें उन्होंने आत्माके द्वारा स्वर्गमें अपना स्थान बनाया।
इस प्रकार कनकप्रभ मुनिराजने घोर तप, संयम, दर्शन और ज्ञानकी विशिष्ट बातोंपर पूर्णरूपसे चिन्तन किया ॥६॥
कनकप्रभको ऋद्धियोंकी प्राप्ति अनेक उग्र और घोर तपोंके द्वारा शरीरको तपाने वाले गुणधारी मुनिको आकाशगामिनी नामकी ऋद्धि प्राप्त हुई। साथ ही जलचरण, तंतुचरण, श्रेणिचरण और जंघाचरण (ऋद्धियाँ) एवं सर्वावधि, मनःपर्यय, अवधिज्ञान, तथा अंगोंसे
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