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७, १० ]
अनुवाद
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संबंधित अन्य ऋद्धियाँ भी उन्हें प्राप्त हुई । ( उन्हें ) सर्वौषधि ऋद्धिकी सिद्धि हुई और वैक्रियिक नामक परम ऋद्धिकी भी प्राप्ति हुई । अनेक प्राप्त ऋद्धियोंसे युक्त देहको धारणकरनेवाले और ज्ञान प्राप्त गुहाओं और नदी तटपर तपस्या करते तथा प्रासुक प्रदेश में बढ़ते तथा सचित्त स्थानों को दूरसे त्यागते थे । हेमन्त, ग्रीष्म करते थे ।
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विहार करते थे और वर्षाकाल वे
वह मुनि मोक्षकी इच्छा करते थे; कंदराओं, चलते समय चार हाथ भूमिको देखकर आगे चौराहे पर शिलापर, या वृक्षके नीचे व्यतीत
वे मुनिवर अक्षीणमहानस आदि अनेक ऋद्धियोंसे युक्त हो भव्यजनरूपी कमलोंको प्रतिबोधित करते हुए तथा दोनों प्रकारका तप करते हुए भ्रमण करते थे ॥ ७॥
कनकप्रभका क्षीरवन में प्रवेश
मुनिसंघ के स्वामी, मत्त गजेन्द्र के समान गमन करनेवाले, सकल दोषोंका परिहार करनेवाले, संसारकी तृष्णाका नाश करनेवाले, महामुनि, निन्दासे परे, सुर तथा असुरों द्वारा वंदित, त्रिकालको पूर्णतः जाननेवाले, मति, श्रुतिके धारक, कामके संसर्गसे रहित, सब साधुओं द्वारा पूजित मुनि ग्राम, वन और भयानक पर्वत प्रदेश में विहार करते हुए सिंह और शूकरोंके कारण भयोत्पादक, तमाल और ताड़ वृक्षोंके कारण सघन तथा पक्षियों और भौरोंसे व्याप्त भीषण वनमें प्रविष्ट हुए ।
क्षमा, दया और नियमसे युक्त उन श्रेष्ठ मुनिने उसी क्षीर नामके विशाल और भीषण चनको देखकर उसमें पंचानन के समान प्रवेश किया ॥८॥
arrar में स्थित पर्वतका वर्णन
उस क्षीर नामक श्याम वनमें एक पर्वत था । उसकी चोटी चट्टानोंसे पटी हुई थी। वह ऊपर की ओर सकरा और ऊँचा था तथा मेरुके समान स्थित था मानो जगका कोई मल्ल हो । वह अखंड, प्रचण्ड, विस्तृत और भयंकर था। वह दुष्प्रेक्ष्य, सर्वतः पृथक, अत्यन्त विशाल और विचित्र था । वह अच्छे स्थलोंसे युक्त और दुर्गम था । वह शेही, सिंह, कुत्ते ( जंगली ) बैल, अग्नि, जल, कन्द, बबूल, वनराजि और ताल (वृक्षों) से परिपूर्ण था । उसमें कहीं चीते थे कही नहीं, कहीं व्याघ्र थे कहीं नहीं । वह प्राणियोंसे भरा था । पूगी वृक्षोंसे युक्त था । कहीं लांघा जा सकता था कहीं नहीं लांघा जा सकता था । वह मोरों और चोरोंसे व्याप्त था । दक्षिणपवनसे रमणीक था । सुन्दर शब्दोंसे मुखरित था तथा तेजसे चमक रहा था ।
इस प्रकार के उस गिरिशिखर पर चढ़कर, ( सबके प्रति ) सम भाव धारणकर, धर्मध्यान में लीन हो वे ( मुनि ) आता योग में स्थित हुए ||९||
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कनकप्रभपर सिंहका आक्रमण
वे मुनि समस्त जगतको समता भावसे देखते हुए कलिकालके दोषोंको दूर करते थे । उन्होंने इन्द्रियोंकी (प्रवृत्ति) को क्षीण किया। उनका व्रत और चारित्र्य अस्खलित तथा चित्त उपशमित था । जब कनकप्रभ मुनि तप कर रहे थे उस समय क्या हुआ ? उस समय एक घोर उपसर्ग आया । जिसे ( पहले ) कमठ कहा गया है, उसका पापी जीव नरकसे निकलकर लपलपाती जीभवाला सिंह हुआ । विशाल मुखवाला, विकराल वह देखने में भयावह था । अत्यन्त दुःखदायी, पैने नाखूनोंसे युक्त, कराल और विशाल वह सिंह कालके समान ही दिखाई देता था । उसने तप करनेवाले, भय मय ( आदि दोषों) का त्याग करने वाले तथा मनमें धृति धारण करनेवाले मुनिको देखकर, फिर गुर्राकर, गर्जना की, अपनी गर्दन के बालोंको हिलाया तत्पश्चात् मुनिके उस शरीरपर पैर रखकर उसपर टूट पड़ा जो अनेक गुणों और यशका पुंज था । उस संयमी साधुको नाखूनोंसे फाड़कर उसने उसके बाहुको खून से लथपथ कर दिया ।
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