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२०] पार्श्वनाथचरित
[३, १४हुआ ही जिनेन्द्रकी सेवा करूँगा।" मुनिवरने भी कहा-“ऐसा ही हो ।” उसने भी सबके साथ वह ( श्रावक धर्म ) ग्रहण
हा )-"अभिमान रहित अरहन्त भट्टारक इस लोक तथा परलोकमें भी हमारे ( आराध्य ) देव रहेंगे। निर्ग्रन्थ धर्मके गुरु समस्त साधु तथा दशलक्षण धर्मपर हमारा अनुराग रहेगा। हम बारह प्रकारके समस्त श्रावक धर्मका जन्म भर पालन करेंगे। हम मृत्यु पर्यन्त तीन बार स्नान तथा पूजन विधान करेंगे।"
"हे गुरु, आपकी साक्षीसे हमने अणुव्रतोंका भार ग्रहण किया । हे परमेश्वर हम आप मुनिवर ( की कृपासे ) इसका जीवन पर्यन्त पालन करते रहें" ॥१३॥
गजका सार्थपर आक्रमण इसी समय वह अशनिघोष गजपति अपने समूहके साथ उस प्रदेशमें आया। उस वनमें मनोहर, सुखकर और प्रचुर जलवाला एक गहरा और विशाल सरोवर था । रक्तकमलों और नीलकमलोंसे वह ढंका हुआ था। सारस और बगुलोंके कोलाहलसे वह रम्य था । उस सरोवरमें हथिनियोंके साथ सहज ही प्रवेश कर, जलको ग्रहण कर तथा जलक्रीड़ा कर वहाँ से जब निकला तो उसने मार्गमें सार्थको खड़ा पाया । उसे देखकर वह अशनिघोष अपने दलके साथ उस स्थानकी ओर दौड़ा। गुड़-गुड़ ध्वनि करते हुए तथा कृष्ण मेघके समान उस विशालकायको आते देख वे (सार्थवाले ) हाथियों के समूहसे डरकर दशों दिशाओंमें उसी प्रकार भागे जैसे अनिष्टकारी गरुड़के भयसे सर्पराज भागते हैं। दुखदायी हाथियोंने भीषण धक्के मार-मारकर पूरा अनाज और तन्दुल पृथिवीपर बखेर दिया तथा ( उन्होंने) चावल, गुड़ और शक्कर खाई तथा मधु, खीर और घी आनन्दसे पिया।
दाँतोंके प्रहार और पैरोंके आघातसे सब सार्थको चूर-चूर कर वह समूहका नायक हथिनियों सहित वहाँ गया जहाँ मुनिराज थे ॥१४॥
अरविन्द मुनि द्वारा गजका प्रतिबोधन उस विशाल गजको आते देखकर वे मुनिराज भट्टारक ध्यानावस्थित हो गए। चारों शरणोंका स्मरण करते हुए. आर्त रौद्र इन अशुभ (ध्यानों ) का उन्होंने परिहार किया। जब मुनिवर इस अवस्थामें थे तब वह गजश्रेष्ठ उनके समीप आया । उसने सूंड ऊपर उठाई और खड़ा हो गया। वह मदमत्त कुछ भी नहीं समझ रहा था। मुनिकी देहकी कान्तिको देखकर वह हाथी क्षण भरके लिए सोच-विचारमें लग गया-"तप ( से अर्जित ) तेजराशि ( को धारण करनेवाले ) इन मुनिवरको जन्मान्तरमें मैंने कहीं देखा है।" जब वह गजेन्द्र मनमें इस प्रकार विचार कर रहा था तब उन मुनीन्द्रने उससे कहा-."हे गजवर, मैं राजा अरविन्द हूँ । पोदनपुर का स्वामी हूँ। यहाँ आया हूँ। तू मरुभूति है, जो हाथीके रूपमें उत्पन्न हुआ है। विधिवशात् तू इस सार्थके पास आया है । मैंने पहिले ही तुझे ( कमठके पास जानेसे ) रोका था। उसकी अवहेलना कर तू इस दुःखको प्राप्त हुआ है । गजवर ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है । तू मेरे द्वारा कहे हुए वचनोंका यथासम्भव पालन कर।"
“सम्यक्व और अणुव्रतोंको ग्रहण कर, जिनेन्द्र के उन वचनोंका चिन्तन कर, जो चारों गतियोंके पापोंका नाश करनेवाले हैं । हे गज ! इससे तू परम सुख पाएगा" ||१५||
अरविन्द मुनिको मुक्तिकी प्राप्ति अशनिघोषने उन वचनों को सुन, सैंड हिलाई और क्रोधको त्यागा। मुनिवरके चरणोंमें गिरकर वह गजश्रेष्ठ दुखी हो आँसू गिराते हुए रोने लगा । मुनिवरने जिन द्वारा कहे गए सुन्दर वचन रूपी औषधसे उस गजवरको आश्वासन दिया। (गजने) उठकर मुनिको नमस्कार किया तथा मुनिने जो कहा वह सब ग्रहण किया। इधर यह गजश्रेष्ठ तपश्चर्या में लगा और उधर मुनिवर
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