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५, १२] अनुवाद
[२९ आता था वैसे-वैसे वह बाण मारता था। मुनिके शरीरसे आती रुधिरकी धारको देख-देखकर कुरंग भीलका शरीर रोमाञ्चित होता था। मुनीश्वरने उस पीड़ापर ध्यान नहीं दिया तथा संसारके सभी व्यवहारोंका त्याग किया। उसने लोकोत्तम अर्हन्त भगवान्की शरण गही। शमयुक्त चित्तसे सबको समान मानते हुए उसने शरीरके अतिकष्टको स्वल्प ही माना । (मनमें वह इस प्रकारकी भावना करने लगा )-"मैंने पूर्व जन्ममें अशभ कर्म किया होगा उसके फलसे यह जन्म प्राप्त हुआ। मैं न तो किसीसे रुष्ट हूँ और न किसीसे तुष्ट । जीव जो कर्म करता है वही उसके अनुभवमें आता है।"
“अन्य जन्ममें मैंने जो महापाप कमाया है उसके पूरे फलको ही आज मैं इस शरीरके द्वारा पा रहा हूँ" ॥१०॥
चक्रायुधकी स्वर्ग-प्राप्तिः भीलका नरकवास जब वह भावना, तप, नियम, योग और ध्यानसे आत्माका चिन्तन तथा मनसे नमोकार मन्त्रका स्मरण कर रहा रहा था तभी उसके शरीरका नाश हुआ। वह मध्यम ग्रैवेयकमें महान् तेजधारी और महाप्रभुके नामसे ज्ञात देवके रूपमें उत्पन्न हुआ । वन्दनीयोंमें श्रेष्ठ वह सकल आभरणोंसे सुशोभित था। केयूर, हार आदिसे उसकी देह चमक रही थी। एक सागरकी अवधि तक वह देवों के साथ श्रेष्ठ असंख्य सुखोंको भोगता रहा । इधर वह पापी, मूर्ख, म्लेच्छ कुरंग कोढ़से ग्रस्त होकर रौरव नरकमें गया । वहाँ उस पापीने जो अनेक दुस्सह और दारुण दुख सहे उनका वर्णन करनेमें मैं असमर्थ हूँ, तो भी आगमके कथनको ग्रहण कर संक्षेपमें कुछ कहता हूँ।
वह दुष्ट कुरंग भील नरकरूपी समुद्रमें उत्पन्न हुआ। (उसे देख) सब नारकियोंने कहा-"रे पापी (यहाँसे) भाग । तू यहाँ कहाँसे दिखाई दिया" ॥११॥
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नरककी यातनाओंका वर्णन वहाँ अनेक कटुभाषी दुष्ट थे। उनके हाथों में त्रिशूल थे और वे शस्त्रसे वार करते थे। आधे क्षणमें ही वे चारों तरफसे आ पहुँचे। उन बीभत्स (नारकियों) ने उस पापीको अनिष्टके समान देखा। क्रोधित हो ( उन्होंने उसे) पकड़ा, गलेमें रस्सीसे बाँधा फिर नदीमें फेंक दिया। वहाँ एक विशाल मगरने ( उसे ) खा लिया। उसे पुनः देहकी प्राप्ति हुई किन्तु जलमें सड़ांदके साथ। वहाँसे तत्काल ही मुक्ति पाई। फिर पर्वतपर और वनमें ले जाया गया। वहाँ लपलपाती जीभवाला एक दुष्ट सिंह था। उसने ऊपर पैर रखकर नाखूनोंसे ( उसे ) फाडा जिससे उसे तलवारसे काटने जैसा भीषण दुःख हुआ। फिर ( उसका ) शिर फोड़कर उसे पीस डाला।
नारकियोंके घोर प्रहारोंसे उसके शरीरपर चिह्न पड़ गये। उस भीषण दःखसे पद्मकीर्ति आशंकित हुए ॥१२॥
॥ पाँचवीं सन्धि समाप्त ॥
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