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२८] पार्श्वनाथचरित
[५, ७__“दीन और अनाथोंका पालन करना । मुनियोंके चरणोंकी सेवा करना तथा भण्डार, राज्य, घर और परिजनोंमें सयानोंको रखना" ॥६॥
चक्रायुध द्वारा दीक्षा-ग्रहण पुत्रको शिक्षा देकर चक्रायुध प्रसन्न मनसे वहाँ गया जहाँ जिन भगवान् विराजमान थे। जाकर उसने संसारको प्रकाश देनेवाले, व्रत और गुणोंसे युक्त श्रीक्षेमंकरको प्रणाम किया एवं समस्त भव्यजनोंके नयनोंको सुख पहुँचानेवाली तथा संसार-चक्रका नाश करनेवाली दीक्षा ग्रहण की। वह मुनि भय, मद तथा सम्यक्त्वके दोषोंसे रहित होकर अनगार धर्ममें अविचल रूपसे स्थिर हो गया। उसने अवग्रह, योग, संयम व्रत, उपवास और दर्शनको ग्रहण कर इनका ( आगममें ) बताए अनुसार पालन किया । वह मन, वचन और कायकी सदोष प्रवृत्तियोंसे रहित था। पाँचों इन्द्रियोंको वशमें रखता था। मनमें देव और शास्त्रका ध्यान करता था । छह आवश्यकोंका पालन करता था । विशाल जिन-भवनों की वन्दना करता था। भव्यजन रूपी कमलोंको सूर्यके समान प्रतिबोधित करता था और जीवोंपर दया भाव रखता हुआ पृथ्वीपर विहार करता था।
एक लाख पूर्व वर्षांतक उसने जिनदेवके बताए अनुसार कल्याणकारी तपश्चर्या की जिससे सैकड़ों जन्म रूपी वृक्षोंसे युक्त अशोभन कर्म रूपी पर्वतका नाश हो गया ॥७॥
चक्रायुधकी तपश्चर्या तपश्चर्या करनेवाले और छह प्रकारके जीवोंपर दयाभाव रखनेवाले उन मुनिवरको आकाश-ग़ामिनी ऋद्धि प्राप्त हुई। बीज-बुद्धि और कोष्ठ-बुद्धि जैसी श्रेष्ठ ऋद्धियाँ तथा नौ प्रकारकी परम लक्ष्मियाँ भी प्र , साथ ही सकल मंत्र भी सिद्ध हुए। वह उत्तम-चरित्र और विमल-चित्त मुनि आकाश ( मार्ग) से विजय सुकच्छ गया। वहाँ वह भीमाटवी नामक वनमें पहुँचा, फिर ज्वलनगिरिपर तपस्यामें लीन हो गया। प्रखर रविकिरणोंमें अपने शरीरको स्थापित कर वह एकाकी आतापन योगमें स्थिर हुआ। ध्यानाग्निसे पापको भस्म करता हुआ, शत्रु और मित्रको समान मानता हुआ, भावोंका शमन करता हुआ, बारहों भावनाओंका स्मरण करता हुआ वह अभ्यंतर और बाह्य दोनों तप करता था।
दर्शन और ज्ञानसे विशुद्ध वह चक्रायुध मुनीश्वर धर्मध्यानमें तत्पर रहकर बाईस परीषहोंको सहन करता था ॥८॥
कमठके जीवकी भीलके रूपमें उत्पत्ति इसी बीच अशुभ ( कर्मों) का भण्डार अजगरका वह क्षुद्र जीव तम पृथ्वीमें डरावने दुःख सहकर उस ज्वलनगिरिमें उत्पन्न हुआ। उसका नाम कुरंग था । वह भीलोंका अगुआ हिंसा करता था, चपल था और पापी था। बचपनसे लेकर उस दुष्ट-कर्मीका जन्म पाप करने में ही गया। उस पवेतपर भ्रमण करते हुए उसने तपमें लीन और दयासे युक्त उस परम साधुको देखा। उसे देखते ही उसके मनमें क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने नयनोंसे (देखते ) ही उस योगीश्वरको शापरूप समझा। नयनोंसे, जिसने जिसके प्रति पूर्वमें जो वैर-भाव रखा हो. वह जाना जाता है। नयनोंसे ही शत्रु और मित्र तथा भाई-बंधु या पुत्र, जो जिसका हो, वह भी जाना जाता है।
प्रिय व्यक्तिके समागमसे स्नेहबद्ध नयन खिल उठते हैं तथा अप्रियको देखकर वे ही म्लान हो जाते हैं, रुधिरके समान लाल हो उठते हैं या क्रोधसे जलने लगते हैं ॥९॥
भील द्वारा चक्रायुधपर बाण-प्रहार क्रोधानलकी ज्वालासे प्रज्वलित होकर उसने एक अत्यन्त तीक्ष्ण बाण साधुको मारा। जैसे-जैसे मुनिकी देहसे रुधिर
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