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पार्श्वनाथचरित
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किरणवेग की वैराग्य-भावना; उसकी मुनिसे भेंट जव किरणवेग राजा राज्य कर रहा था तब उसकी बुद्धि परमार्थ कार्यमें लगी। इस बुरे राज्यसे क्या लाभ ? यह नरकमें पहँचा कर अपना फल दिखाता है। जब तक वृद्धावस्था नहीं आती और बुद्धि चली नहीं जाती तब तक मैं तप करूँगा, जिससे सिद्धिकी प्राप्ति होगी। अपने पुत्र रविवेगको राज्य देकर तथा समस्त पृथिवीको तृणके समान त्यागकर उसने सुरगुरुनाथके चरणोंमें (जाकर ) नमस्कार किया तथा जिनदीक्षा ग्रहण की। उसने सुरगुरुसे पूछा- "उन व्रतोंके बारेमें बताइए जो संसारतारणके लिए समर्थ हैं । मैं कैसा आचरण करूं, कैसे आहार ग्रहण करूँ, कैसे पृथ्वी पर भ्रमण करूँ और कैसे तप करूँ ?" उन वचनोंको सुन संयम और तप धारण करनेवाले सुरगुरु मुनिने कहा
"किरणवेग, जो तू संयम, नियम और विधानके बारेमें पूछता है, वह मैं आगममें कथित प्रमाणसे बताता हूँ।" ॥७॥
मुनि द्वारा महाव्रतों पर प्रकाश; मुनिके अट्ठाइस मूलगुण अहिंसा नामक व्रत व्रतोंमें सारभूत है। वह संसारकी चारों गतियोंका निवारण करता है। दूसरा सत्यव्रत है जो अनिर्वचनीय है, महान है और स्वर्ग तथा मोक्षका भूषण है । तीसरा व्रत न दी गई वस्तु का ग्रहण न करना है । इससे स्वर्गकी प्राप्ति होती है । चौथा ब्रह्मचर्य नामका महान व्रत है। वह अविचल, शिव और शाश्वत पदका मार्ग है । पाँचवाँ महाव्रत वह है जिसमें समस्त परिग्रहके प्रति मोहका त्याग किया जाता है। वह सुखोत्पादक है। जो इस जगमें इन पाँच महाव्रतोंको पाँच समितियों के साथ धारण करता है, पंचेन्द्रियोंका भी उसी प्रकार निग्रह करता है, तथा प्रतिदिन छह आवश्यक किया करता है, वह अनेक सुखोंको निरन्तर प्राप्त करता है तथा संसारमें भटकता नहीं फिरता । खड़े-खड़े भोजन करना, एक बार भोजन करना, वस्त्र त्याग करना, केशलुश्च करना और स्नान नहीं करना, भूमि पर शयन करना तथा दाँत नहीं घिसना ये मूलगुण कहे गए हैं। इन्हें मनमें धारण करो।"
"यह श्रमण धर्म दस लक्षणोंवाला है । उसे गणधर देवोंने स्पष्ट किया है । जो अपने ( शरीरका ) शोषण करता है उसका ही यह ( धर्म ) स्थिर रहता है।" ॥८॥
मुनिका उपदेश; मुनिधर्मपर प्रकाश विशिष्ट चिन्तन करनेवाले किरणवेग मुनि रूपी अपने शिष्यको सुरगुरुने (इस प्रकार ) शिक्षा दी-"नृपहीन प्रदेशका त्याग करना, शिथिलाचार साधुओंके साथ भ्रमण नहीं करना; धर्ममें लीन मुनिकी सेवा करना; स्वतःको उत्कृष्ट पदपर स्थिर करना; उत्तरोत्तर बढ़नेवाला तप करना; जिनवरों और गणधरोंकी आझाका पालन करना; समस्त भविकजनोंको प्रतिबोधित करना; चतुर्विध श्रमणसंघकी पूजा करना; स्त्रीसंगसे दूर रहना; दर्शन, ज्ञान और चारित्र्यको धारण करना; शंका और आकांक्षा दोषोंका त्याग करना; वृद्ध और रोगग्रस्त साधुओंकी परिचर्या करना; ( दूसरोंकी ) प्रतिदिन सेवा सुश्रूवा करना; आगम, नियम और योगका ध्यान करना।"
"इनसे विरुद्ध ( आचरण ) कदापि नहीं करना; अकुलीनोंकी संगतिमें नहीं रहना; अपने धर्मको दृषित नहीं करना तथा आगमकी आराधना करना।" ॥९॥
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किरणवेगकी तपश्चर्याका वर्णन जो कुछ गुरूने कहा उस सबको सुन किरणवेगने पञ्चेन्द्रिय और मनकी प्रवृत्तियों का निरोध किया। मुनिवरने जिस नियमको जैसा बताया उसने उसे वैसा ही ग्रहण किया। तीनों लोकोंमें सारभूत मूलोत्तर गुण, संयम और नियमोंको उसने
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