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४,१२] अनुवाद
[२५ अच्छी तरहसे ग्रहण किया। परमार्थ चक्षु गुरूकी आराधनाकर उसने सम्पूर्ण सिद्धान्तका अध्ययन किया। वह वर्षाकालको वृक्ष के नीचे और हेमन्तको चौराहेपर व्यतीत करता था। ग्रीष्मकालमें सूर्यकी किरणोंको सन्मुख रखते हुए वह मदमत्त हाथीके समान मार्गपर चलता था। जगमें जितने महान् और घोर तप तथा व्रतविधान थे वह उन सबका पालन करता था। वह जिनभवनोंकी वन्दनाके लिए निकला और पुष्करार्ध क्षेत्रके मेरु पर्वतपर गया ।
___ वहाँ जिनभवनोंकी भक्तिपूर्वक वन्दना कर वह किरणवेग अविचल भावको धारण करता हुआ ध्यानमें लीन हुआ ॥१०॥
अजगर द्वारा किरणवेगकी मृत्यु; किरणवेगकी स्वर्गमें उत्पत्ति ___ उसी समय नाना प्रकारके अनेक दुस्सह नरक-दुःख भोगकर कलिकालके दोषोंका भण्डार कमठका वह जीव एक भयंकर अजगरके रूपमें उत्पन्न हुआ। वह दो जीभवाला, काला और एक योजन लम्बा था। वह सब जीवोंके लिए यमके समान भयंकर था। उस पापी अजगरने उस मुनिको पैरसे लेकर सिरतक (पूरा) निगल लिया । जिसे शत्रु और मित्र समान थे, ऐसे किरणवेग मनिने एकाग्रचित्त होकर परमात्माका ध्यान किया। अजगरकी भयंकर विषदाहको सहनकर वह शुल्कध्यान (की अवस्था ) में मृत्युको प्राप्त हुआ। वह देवभूमियोंमें श्रेष्ठ, मणिकिरणोंसे प्रकाशमान और स्वर्गोंमें प्रधान अच्युतकल्पमें पहुँचा । उसे स्वर्गमें उत्पन्न हुआ देख देवोंने जय-जयकार की और वहाँ स्वागत किया-हे धर्मकी राशि, तुम यहाँ उत्पन्न हुए हो: अब स्वर्गमें सुख भोगो, खुशी मनाओ और वृद्धि पाओ। तुमने पूर्व जन्ममें जिनधर्मका पालन किया इससे देवजन्मकी प्राप्ति हुई।
ये इन्द्र हैं और ये हैं देव । इनसे यह स्वर्ग भरा-पूरा है । अन्य जन्ममें तप करके तुम यहाँ उत्पन्न हुए हो ॥११॥
अजगरकी दावाग्निमें मृत्यु; उसकी नरकमें उत्पत्ति वह अजगर दावानलमें जलकर पापके फलसे तम नामक नरकमें गया। वहाँ उसने तलवार, भाला, लट्ठ और मुद्गरके आघात सहे तथा हजारों दुःख भोगे । नारकियों द्वारा पग-पगपर उसे दारुण तथा तीक्ष्ण शस्त्रोंसे ताड़ना पहुँचाई गई। उस पापीको घुमाया, मूर्छित किया और फिर वैतरिणी नदीमें फेंका। वहाँ उसे खौलता हुआ खून पिलाया गया। उसका अन्त पाकर वह वहाँ से उबरा। फिर सर्प, गोह और पक्षियोंसे वह कटवाया गया तथा सिंहोंसे उसका शरीर फड़वाया गया। उसके गलेमें ( संडसीका ) पाँव डालकर सँडसीसे उसकी जीभ वैरियों द्वारा निकाल ली गई। उसका शरीर मूसलोंसे कूटा गया तथा कतरनीसे उसके टुकड़े-टुकड़े किए गए।
___ उसने नरकमें जो दुस्सह दुःख सहे, पद्मकीर्तिका कथन है कि वैसे भयानक दुःखका वर्णन करनेमें कोई समर्थ नहीं ॥१२॥
॥ चौथी संधि समाप्त ॥
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