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४,६] अनुवाद
[२३ सुख भोगने लगा। उस गजश्रेष्ठका जीव अनेक प्रकारके तपोंके कारण इन्द्रपुरीमें आनन्दसे विलास करता था। स्वर्गकी देवियों के साथ क्रीड़ामें आसक्त और मदसे मत्त उस (गजके जीव) ने कालको व्यतीत होते हुए नहीं जाना। कुक्कुट सर्प भी गरुड़का भक्ष्य बना। वह अपने कर्मोंसे पाँचवें नरकमें गया। वहाँ उसे उसी समय हुंडक संस्थान प्राप्त हुआ तथा नारकियोंने उसके ( काटकर ) सैकड़ों टुकड़े किये।
बन्धन, मारण, ताड़न तथा निष्ठुर वचन आदि जो जो दुःख होते हैं कुक्कुट सर्पके जीवने वे सब सहे ॥३॥
राजा हेमप्रभका वर्णन इस जम्बूद्वीपमें पूर्व विदेह नामका क्षेत्र है जो अनेक श्रेष्ठ पर्वतों और नदियों द्वारा विभाजित है। उसमें नगर-समूहों और पर्वतोंसे सुशोभित महान् सुकच्छविजय नामका देश है। वहाँ चन्द्र और शंखके वर्णका वैताढ्य नामका रमणीक पर्वत है। उसकी दक्षिण श्रेणीपर उत्तम कक्षोंसे युक्त उत्कृष्ट धवलगृहोंसे शोभित तिलक नामका नगर था। वह लक्ष्मीका धाम, जयश्रीका निवास और विद्याधरोंका आवास था। वहाँ चन्द्रमाके समान, प्रजाको आनन्द देनेवाला, हेमप्रभ नामका विद्याधरोंका राजा था। उसकी रानी मदनावली अत्यन्त रूपवती और चूडामणिके समान उपमा योग्य थी। प्रियभाषिणी, उज्ज्वल कीर्तिवाली वह उच्चकुलमें उत्पन्न हुई थी मानो कामदेव (रूपी वृक्ष ) की प्रथम शाखा हो।
उसके गर्भसे वाक् , शील और गुणसे निर्मल, सम्पदा और गुणोंसे युक्त तथा कुलको आनन्दित करनेवाला विद्यद्वेग नामका पुत्र उत्पन्न हुआ ॥४॥
राजकुमार विद्युद्वेगका वर्णन खेचरोंका राजा वह विद्युद्वेग ऐसा प्रतीत होता था मानो साक्षात् इन्द्र हो । उसकी रत्नप्रभा नामकी पत्नी थी । वह कलाओं और गुणोंसे युक्त. लज्जाशील, सुन्दर और श्रेष्ठ थी मानो राजलक्ष्मी ही हो। वह उन्नतस्तनवाली तथा निरन्तर सख देनेवाली थी। उसके गर्भ में जिसे पहिले नियमधारी हाथी कहा गया है और जो देव हुआ, वह कलाओं और गुणोंका धारक कर्मोका क्षय करके आया। नवमासकी अवधि तक गर्भ में रहकर वह उत्पन्न हुआ जिससे नगर भरमें हर्ष हुआ। उसका नाम किरणवेग रखा गया। उसने अनेक विद्याएँ सीखीं और तीनों लोकोंमें ख्याति प्राप्ति की । वह सज्जन-स्वभावका था और प्रजाके प्रति स्नेह रखता था । उस श्रेष्ठ राजकुमारने कलाओं और गुणोंको पूर्णरूपसे अपनाया । क्रीड़ा करता हुआ वह अपने पिताको सुख पहुँचाता था तथा अनेक मित्रों के साथ आनन्दपूर्वक विचरण करता था।
अपने पुत्रको युवा देखकर दि द्यद्वेगके मनमें यह चिन्ता समाई कि अब यहाँ राज्य करता हुआ मैं घरमें क्या करूँगा ? ॥५॥
विद्युद्वेग द्वारा किरणवेगको राज्य-समर्पण गुणोंके भण्डार उस विद्युद्वेग विद्याधरने मनमें यह विचारकर अपने पुत्र को उसी समय बुलाया और प्रसन्न मनसे उससे कहा-“हे किरणवेग, अब तुम यह राज्य सँभालो, मुझे इससे अब कोई प्रयोजन नहीं है । हे पुत्र, यह संसार असार है। गृहस्थीमें उत्तम जीव भी मोहमें फँसता है । जहाँ ब्रह्मा, इन्द्र और रुद्र भी क्षयको प्राप्त होते हैं वहाँ हम जैसेका क्या मान हो सकता है ?" ऐसा कहकर वह बहुत आशासे सागरदत्त मुनिवरके पास गया। जिस प्रकारसे पिताने राज्य चलाया, कुमार किरणवेग भी वैसे ही प्रजाका पालन करने लगा। खेचरोंमें जो प्रतिकूल थे, उन्हें अपने वशमें कर, वह उन्हें अपने पास लाया ।
खेचरोंकी सेनाका उपयोग और धवल तथा उज्ज्वल शिखरवाले समस्त वैताढ्य पर्वतका उपभोग वह किरणवेग राजा करता था॥६॥
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