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पार्श्वनाथचरित.
[३,७
सम्यक्त्वधारी की प्रशंसा जैसे वृक्षके लिए जड़, हाथीके लिए दाँत, रथके लिए धुरी, मनुष्यके लिए नेत्र, नगरके लिए पथ, वनिताओंके लिए नितम्ब, प्रासादके लिए प्रवेशद्वार, मुखके लिए लालिमा, गगनके लिए चन्द्रमा तथा नागके लिए मणि है, उसी प्रकार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतके लिए सम्यक्त्व सारभूत है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इसीलिए इसे सर्वप्रथम धारण किया जाता है । सम्यक्त्व-सहित नरकवास अच्छा, पर उसके बिना स्वर्गमें निवास अच्छा नहीं । सम्यक्त्व-सहित दारिद्रय भी अच्छा है पर उसके बिना ऐश्वये अच्छा नहीं। जिसके पास सम्यक्त्व है वह धनहीन होते हुए भी धनवान है। धन एक ही जन्ममें ( पर ) सम्यक्त्व रूपी महाधन जन्म-जन्मान्तरमें भी मनुष्यको शुभ कर्मोंसे अनुबद्ध करता है।"
सम्यक्त्वसे, मनुष्योंकी उत्पत्ति बारह मिथ्या योनियोंमें ज्योतिष और भवन ( वासी देवों ) तथा स्त्रियोंमें और पृथिवीके छह (नरकों) में नहीं होती" ॥७॥
हिंसा आदिका दुष्फल "हे कुलभूषण सार्थवाह, ( अब ) मैं अहिंसाधर्म बताता हूँ: सुनो। जो बिना कारण भाला, तलवार और लड़की चोट और प्रहारसे प्राणियोंको मारते हैं वे यहाँ दरिद्री उत्पन्न होते हैं। उन्हें नरकमें गिरनेसे कौन बचा सकता है ? जो परस्त्रीकी अभिलाषा करते हैं वे नपुंसक और विकलेन्द्रिय हो उत्पन्न होते हैं। जो प्रतिदिन छलछिद्रों में लगे रहते हैं और जिनका मन मित्रोंकी निन्दामें आसक्त रहता है वे पुरुष नीचकुलमें उत्पन्न होते हैं, शक्तिहीन होते हैं तथा अनेक दुःख पाते हैं। जो वनमें आग लगाते हैं तथा आखेटके लिए घूमते-फिरते हैं वे पुनः उत्पन्न होते हैं तथा वैभवहीन जीवन व्यतीत करते हैं; खाँसी श्वास आदि अनेक व्याधियोंसे पीड़ित होते हैं तथा जन्म-जन्ममें बुद्धिहीन रहते हैं। जो नाना प्रकारके वृक्षोंको काटते और छीलते हैं उन्हें हे नरश्रेष्ठ, कोढ़की व्याधि होती है।"
“जो अदृष्टको दृष्ट तथा अश्रुतको श्रुत कहते हैं वे अन्धे और बहिरे मनुष्य, पापसे पीड़ित हो पृथिवीपर भ्रमण करते रहते हैं" ॥८॥
अणुव्रतोंका निरूपण "अब मैं उस परमधर्मको बताता हूँ जिससे जीवके अशुभ कर्मका नाश होता है ; सुनो ! जो देवताओंके निमित्तसे औषधिके लिए तथा मंत्रकी सिद्धिके लिए छहों जीवोंकी हिंसा नहीं करता तथा जो दया, नियम, शील और संयम धारण करता है वह अहिंसा नामके पहिले व्रतको धारण करता है। जो दंड, कलह, अविश्वास, पाप और कूटत्व सम्बन्धी वचनोंका परिहार करता हआ आचरण करता है वह सत्यव्रत नामके दसरे व्रतको धारण करता है। जो मार्ग, ग्राम, क्षेत्र, कुपदेश, वन, कानन, चौराहा, घर या अन्य स्थानमें दूसरेका गिरा हुआ (भी) धन नहीं लेता है वह अचौर्य नामका तीसरा व्रत धारण करता है। जो लावण्य, रूप और यौवनसे परिपूर्ण यथा मनोहर परस्त्रीको देखकर भी मनमें किसी प्रकार चंचल नहीं होता वह ब्रह्मचर्य नामका चौथा व्रत धारण करता है। जो माणिक्य, रत्न, गृह, परिजन, पुर, ग्राम, देश, हाथी, घोड़ा, धान्य आदि वस्तुओंका परिमाण करता है वह पाँच अणुव्रतको धारण करता है।"
"जो पुरुष इन पाँचों अणुव्रतोंका पालन करता है, वह पापसे रहित होकर शिव और शाश्वत सुखको प्राप्त करता है" ॥९॥
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