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तीसरी सन्धि मन, वचन और कायकी सदोष प्रवृत्तियोंसे रहित तथा पंचमहाव्रतोंके धारक भट्टारक मुनि अरविन्द समस्त महीतलपर विहार करते थे।
अरविन्द मुनिकी तपश्चर्याका वर्णन भट्टारक अरविन्दने दीक्षा लेनेपर सब शास्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने बारह अंगोंका अध्ययन किया। फिर नयेनये नगरों और पुरोंमें विहार करने लगे। वे स्वाध्याय, ध्यान, तप और नियमसे युक्त थे, पंचेन्द्रियोंको जीतनेवाले थे, मन, वचन और कायकी सदोष प्रवृत्तियोंसे रहित थे तथा मूलोत्तर गुणों और संयमको धारण करते थे। वे भीरु जनोंके लिए जो दुस्सह है उन तपोंको करते थे। जन्म-मरणके दुखको दूर करनेवाले जिन-मन्दिरोंकी वन्दना करते थे। बाईस परीष करते थे । मूलोत्तर कर्म प्रकृतियोंका क्षय करते थे। छह, आठ, दस, बारह दिन मासार्ध और मासके बाद भोजन करते थे तथा चान्द्रायणादि व्रतोंका पालन करते थे। (इस प्रकार ) महातपोंके द्वारा आत्माका चिन्तन करते हुए वे मुनिवर क्रमसे सल्लकी वनमें पहुँचे।
उस भीषण महावन में आतापन योगमें स्थित वे मुनिवर आगमके निदेशानुसार आत्माका ध्यान करने लगे ॥१॥
__ वनमें एक सार्थका आगमन . इसी समय बहुत-सी वस्तुओंका संग्रह लिये हुए एक सार्थ उस वनमें आकर ठहरा । उस सार्थके स्वामीका नाम समुद्रदत्त था। वह वणिक बहुत धनवान् और विमलचित्त था । उसने गुणवान् मुनिको देख आकर उसे नमस्कार किया। वह सार्थपति जिसका अंग-अंग रोमांचित और उल्लसित था, दूकान रूपी दुस्सह व्याधिको छोड़कर परिजनों के बारम्बार वन्दना करने लगा- "हे परमेश्वर कुसुमायुध-अजेय ! रत्नत्रयधारी ! गुणश्रेष्ठ ! आप पंचेन्द्रिय रूपी वन्यमृगके लिए व्याघ्र समान हो। आप महान् ऋद्धिधारी हो। मनुष्यों और देवों द्वारा आपका पार नहीं पाया जा सकता। उग्रतपसे आपका चतुर्विध संघ-श्लाघ्य है। आप चार अंगुल भूमिको देखकर विहार करते हो। आप श्रमणोंके लिए स्तम्भ हो। अज्ञान और असंयमके लिए आप बाधक हो । आपने मिथ्यात्व रूपी दुर्लध्य कूपको भी पार किया है।"
_ "आप गर्वरूपी शल्यसे मुक्त हो । भय, मद आदि दोषोंसे रहित हो । आपका चारों गतियोंमें भटकना बन्द हो चुका है। मैं आपके चरणकमलोंको नमस्कार करता हूँ" ॥२॥
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सार्थपतिकी अरविन्दसे भेंट; सार्थपतिका धर्मोपदेशके लिए निवेदन तब उन अत्यन्त दयावान् परमेश्वरने ( मुनिने ) नमस्कार करते हुए उस ( सार्थपति ) को आशीर्वाद दिया। उसने भी उस इच्छित आशीर्वादको सिरपर वरमालाके समान ग्रहण किया। उनके चरणोंमें विनयपूर्वक नमस्कार कर उस भक्तिमान् सार्थपतिने कहा-“हे मुनि ! हे स्वामिन् ! आप सम्यक्त्व रत्नके बारेमें कुछ कहें (और बताएँ कि) सिद्धि महापथको गमन कैसे किया जाता है। कलिमल रूपी पापग्रन्थि कैसे छटती है तथा जन्म-मरणकी बेड़ी कैसे टूटती है ? नरकका दारुण दुख कैसे
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