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१४।
पार्श्वनाथचरित
[२, १०
१०
अरविन्द द्वारा पुत्रकी शिक्षाके लिए अनुरोध तदनन्तर उस समर्थ अरविन्द राजाने स्वजनोंसे मीठे शब्दोंमें यह कहा, “यदि मेरा पुत्र अभी भी निरा बालक है तथा मिथ्यात्वका भण्डार है तो क्या हुआ): उत्तम गणोंके धारक. शास्त्रके ज्ञाता तथा परम्पराओंको जा यहाँ हैं ही। (आप) उस बालकके वचनोंपर ध्यान न देना; परिजनों, स्वजनों और बन्धुओंका परिपालन करना; (किए गए) उपकारोंका मेरे हेतु स्मरण करना; मेरे पुत्रको राज्य-धर्म दिखाना; अनीतिसे उस बालकको बचाना; सज्जनोंके चारित्र्यका अनुसरण करना; मेरे द्वारा दिये गये उपदेशको कदापि न भूलना तथा जीवन पर्यन्त दान देना तथा दूसरे पर कृपा रखना। तुमसे मैं एक बात और कहता हूँ, तुम सुनो । तुम सुभाषित वचनोंको चित्तमें धारण करना ।"
___"हे मित्रो; स्वजनो और बन्धुओ; उस बालकके हेतु क्या किया जा सकता है ? पूर्वकृत ( कर्म ) का जितना फल लिखा है उसे उतना भोगना ही होगा।" ॥१०॥
११
अरविन्दको अवधि ज्ञानकी उत्पत्ति तथा नरकके कष्टोंका वर्णन इसी बीच राजाको ज्ञानोंमें श्रेष्ठ अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण कर वह संसारके व्यवहारकी निन्दा करने लगा-"घोर नरकमें वैतरिणी नदीके तीरपर मैं उत्पन्न हुआ था। उस समय जो घोर दुःख मैंने सहा उसका पार कौन पा सकता है ? पहले ( वहाँ मुझे ) हुंडक संस्थान हुआ और फिर उत्क्षेपण और ताडनका दुःख । तत्पश्चात् कान, आँख, हाथ तथा सिरकी तोड़-फोड़ एवं काटे जाने, बाँधे जाने और मारे जाने ( का दुःख पहुँचाया गया)। सेंवलि ( के पत्रों ) से अंग भंगका तथा कुम्भी और कड़ाहीमें खौलते पानीका दुस्सह दुःख सहा । जब मैं ये दुःख सह चुका तब जिनसे पूर्व वैर बँधा था वे वहाँ आ पहुँचे । क्रोधानलकी ज्वालासे प्रदीप्त उन समस्त वैरियों द्वारा मैं बाँधा गया।"
चौरासी लाख योनियोंकी नरकगतिमें जो भयंकर दुःख मैंने नहीं सहा वैसा दुस्सह और भीषण दुःख न हुआ, न होगा ॥११॥
१२
तियंच गति के कष्टोंका वर्णन "बड़े कष्टसे नरकगतिको पार कर मैं विशेष कर्मों ( के फल ) से तिर्यंच गतिको प्राप्त हुआ। मैंने वहाँ बन्धन, प्रहारोंसे विदारण, ( इन्द्रिय ) नाश, अण्डकोश, कर्ण तथा सिरका छेदन, दाह (और अन्य ) कठोर कष्ट रूपी अनेक भयंकर दुःख सहे । मगर, मच्छ, भ्रमर, वराह, पक्षी, रीछ, बिल्ली, बन्दर, पतिङ्गा, सारस, नकुल, अहिकीट, हाथी, हरिण, मोर, भैंस, बैल, गैंडा, सिंह-शावक, सरड, शरभ, बकरा, रोज्झ, घोड़ा आदि असंख्य स्थावर और जंगम योनियोंमें पल्यकी अवधि तक दीर्घकालिक दुःख भोगे; भारी वजन ढोया, भूख, प्यास, सर्दी और गर्मी सहन की; व्याघ्र और सिंहके नाखूनोंसे चीरा-फाड़ा गया तथा लकड़ी और पत्थरसे पीटा गया ।"
"( इस प्रकार ) नरकगतिके समान ही तियेच गतिमें भी अनन्त कालतक असंख्य घोर दुःख सहे" ॥१२॥
__ मनुष्य गतिके कष्टोंका वर्णन "जब मैं मनुष्य गतिमें उत्पन्न हुआ तो वहाँ भी व्याकुल ही रहा । घोर दारिद्र्यसे क्षीण मैं अत्यन्त दीन वचन बोलता था; दूसरोंके दरवाजोंपर भटकता था; धनवानोंके घरोंमें सेवा-कार्य करता था तथा जमीनपर घास बिछाकर सोता था। मैंने पूरे पृथिवी तलका चक्कर लगाया और नदियोंमें भी घूमा। दीनतापूर्वक '(भिक्षा) दो (भिक्षा) दो' की टेर लगाई फिर भी पेट भर भोजन न पाया । इस तरह जब मैं अत्यन्त दुखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा था तब अनेक रोगोंने मुझे घेरा । वात, खाँसी, श्वास,
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