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व्याकरण ।
१२१ (२)....सत्ताणवइ सहासइँ । गयणु असेसु पयास ।। १६. ५. १२-१३ । राहु केउ केलइँ धुव संठिय (१६. ७. ८) में 'कीलई' में इँ छन्द की अपेक्षा से नहीं किया गया है क्योकि वह पाद के अन्त में नहीं हैं फिर भी दोनों प्रतियों में इसी रूप से आया है। अतः हमने उसे परिवर्तित नहीं किया है। इन उदाहरगों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः तृतीय पुरुष बहुवचन के लिए हि तथा अंति के साथ है का भी उपयोग किया जाता रहा होगा । (२) भविष्य काल :
_____प्रथम तथा द्वितीय पुरुषों में निकट भविष्य का कार्य वर्तमान से तथा विध्यर्थ से लिया गया है । अतः प्रथम पुरुष में भविष्यकाल का कोई उदाहरण नहीं है तथा द्वितीय पुरुष के केवल दो उदाहरण हैं— जाएसहि (१. १९. १०) तथा सुणेसहु (१०. ३. ११) । इनमें से प्रथम एक वचन तथा दूसरा वहुवचन है । तृतीय पुरुष के अनेक उदाहरण हैं यथा करेसइ १. ३. १, देसइ १. ३. ३, दंडेसहि १७. ८. ५ तथा उप्पज्जीसइ ८. ९. १०, छंडीसइ ८.१४. ६, विहरीसइ १३. २०.१०, आईसइ (१३. २०. १०) आदि । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि भविष्यकाल में धातु तथा प्रत्यय के बीच एस या ईस जोड़ा जाता है तथा उसमें वर्तमान काल के प्रत्ययों का उपयोग होता है । किन्तु वर्तमानकाल के तृतीयपुरुष बहुवचन के प्रत्यय अति का कहीं उपयोग नहीं हुआ है । हो (भू) धातु में 'एस' 'ईस' दोनों ही तथा • केवल 'स' भी प्रत्यय के पूर्व जुड़ा मिलता है । यथा -होएसइ १७. ८. १, होईसइ ८. २. ७, १३. २०. १० तथा होसइ ८. ३. ११ । इनमें से अन्तिम रूप का अपेक्षाकृत अधिक उपयोग हुआ है । ( ३ ) आज्ञार्थ :
(अ) द्वितीय पुरुष एकवचन के प्रत्यय हि, इ और उ हैं यथा-हि-उत्तरहि २. १६. ६, घरहि ४. ८. १०, देहि १३. १. ९ आणहि १. २०. १, करहि २. १५. ७ आदि । पयासेहि ११. ९. १४ में धातु का अंतिम स्वर ए . में परिवर्तित हुआ है।
इ....करि ( १. १६. १०, १. १८. ७), गिसुणि ( १. १४. ५, ३. १२. २,) सुणि (३. ९. १, ३. १०. १, ३. ११. १) आणि ( ८. १५. २) पालि (९. ९. ९.) जाइ १०, १. ११, केडि १६. १. ११ आदि ।
उ....सुणु १. १४. ४, दिक्खु ९. १२. ३, अच्छु १०. २. ८. मुज्झु १४. ८. ६ ।
पा. च. में आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष का उपयोग नहीं किया गया है । यह 'ए' प्रत्यय हस्व 'ए' था अतः संभव है कि लिपिकारोने उसमें सर्वत्र 'इ' का रूप दे दिया हो क्योंकि हस्व 'ए' को 'इ' में परिवर्तित कर लिखने की सहज प्रवृत्ति है। संभवतः इसी कारण से 'इ' का प्रयोग अन्य प्रत्ययों की अपेक्षा अधिक मिलता है। डा. जेकोवि तथा डा. आल्सडर्फ का तो मत यह है कि प्रारम्भतः आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष एकवचन का प्रत्यय हस्व 'ए' ही था । जो बाद में इ में परिणित हुआ है। अतः यहां प्रश्न यह है कि यह ए प्रत्यय अपभ्रंश में कहां से आया? वैसे हेमचन्द्र ने अपनी प्राकृत व्याकरण (८. ४. ३८७) में 'ए' को आ. द्वितीय पुरुप एकवचन का प्रत्यय माना है । अतः यह कहना कि ए से इ प्राप्त हुआ, उपयुक्त नहीं जंचता । यथार्थ में वस्तु स्थिति इसके विपरीत प्रतीत होती है।
__ संस्कृत के आ. द्वितीय पुरुष एकवचन के प्रत्यय 'हि' का अपभ्रंश में 'इ' हुआ । यही 'इ' यथार्थतः ए में परिवर्तित हुई है जैसा कि वेसास (विश्वास) वेहीविसेण (विधिवशेन ) आदि में वह परिवर्तित हुई है । अथवा 'ए'की उत्पत्ति का कारण यह भी संभव है कि जिस प्रकार अनेक स्थानों पर प्रत्यय के पूर्व धातु का 'अ' 'ए' में परिवर्तित होता था उसी प्रकार आ. द्वि. ए. व. विभक्ति ई के पूर्व भी वह परिवर्तन हुआ होगा और करेइ, गच्छेइ रूप रहे होगों किन्तु कालान्तर में इ प्रत्यय का लोप हो गया और करे, गच्छे रूप ही रह गया । इनके ए को बाद में प्रत्यय रूप से स्वीकार कर लिया है।
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