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प्रस्तावना पर (सरवरेहि १०. १२. ३, बलेहि ११. १३. १३, बंभोत्तरेहि १६. ६. ३ तथा सिंहासणेहि ९. ४. ४ ) में एहि सप्तमी बहुवचन के लिए आइ है । इन उदाहरणों से उस मत को पुष्टि मिलती है जिसके अनुसार करण तथा अधिकरण विभक्तियों का एकीकरण करने की प्रवृत्ति थी । अधिकरण एकवचन के लिए 'म्मि' विभक्ति का भी जब कब उपयोग हुआ. है यथा-मंदिरम्मि ६.१२. २, जुज्झमञ्झम्मि १२. ७. ८, रणंगणम्मि १२. १३. २ आदि । इसके अतिरिक्त 'म्मि' का उपयोग उन स्थानों पर भी किया गया है जो प्राकृत प्रधान भाषा में लिखे गए हैं।
(३) संबोधन एकवचन की कोई विभक्ति नहीं है । किन्तु यदि मूल शब्द में 'य' जुड़ा हुआ रहा तो उसका 'आ' में संकोचन किया गया है यथा- दारा ६. १५. ५, भडारा ६. १५. ५, णिवारा १८. १२. १ आदि । __ संबोधन बहुवचन की विभक्ति 'हो' है।
(इ) अकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों की कारक विभक्तियाँ :
(अ) कर्ता तथा कर्म एकवचन की कोई विभक्ति नहीं है। बहुवचन में 'उ' विभक्ति आती है। इसके पूर्व मूलशब्द का स्वर जब कब दीर्घ कर दिया जाता है - यथा ससिमुहाउ ८, ४, ८, घणथणाउ १४, ११, १ आदि।
(आ) एँ जिसका रूप बहुधा इँ में परिणित हो गया है करण एकवचन की एक मात्र विभक्ति है । करण बहुवचन के लिए हि विभक्ति आई है।
(इ) संबंध एकवचन की विभक्ति 'हे' है जिसका हस्वरूप प्राचीन प्रतियों में 'हि' रूप से भी लिखा गया है। हस्व 'हे' को 'हि' रूप से लिखने की प्रवृत्ति उन स्थानों पर दृष्टिगोचर होती है जबकि इससे संबंन्धित शब्द में सप्तमी एकवचन विभक्ति 'g' आई हो। 'हे' को 'हि' रूप से लिखने के कारण प्राचीन प्रतियों में सप्तमी एकवचन की विभक्ति और इसमें बहुत भ्रांति हुई है। दोनों प्रतियों में 'हे' या 'हि' के लिए दोनों में से कोई भी कभी भी लिखा गया है । डा० आल्सडर्फ के मतानुसार सम्बन्ध तथा अधिकरण दोनों की विभक्ति प्रथमतः हस्व 'हे' ही थी। इससे जब दोनों में भ्रान्ति होने लगी तो अधिकरण विभक्ति को 'हि' रूप से लिखा जाने लगा। किन्तु 'क' प्रति को इस मत की पुष्टि के लिए उदाहृत नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें करण बहुवचन तथा अधिकरण बहुवचन की विभक्तियां तथा वर्तमान तृतीय पुरुष बहुवचन का प्रत्यय 'हि' भी 'हे' रूप से लिखे पाए गए हैं।
संबंध बहुवचन की विभक्ति हैं है। (ई) अधिकरण एकवचन की विभक्ति हि तथा बहुवचन की हि* हैं। (४) इकारान्त तथा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों की कारक विभक्तियां
( अ ) चूंकि पा. च. की भाषा में स्वार्थे 'य' जोड़ने की अत्यधिक प्रवृत्ति है अतः इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों को अकारान्त में परिणित कर लेने के कारण इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों का प्रयोग बहुत कम स्थानों पर हुआ है । फलतः उनकी संपूर्ण विभक्तियां, सामने नहीं आई हैं । जो सामने आई हैं वे ये है :
(आ) कर्ता तथा कर्म एकवचन बहुवचन की कोई विभक्ति नहीं है । शब्दो के मूल रूप ही उन कारकों में प्रयुक्त किए गए हैं। संबोधन की भी कोई विभक्ति नहीं है।
(इ) करण एकवचन की विभक्ति ‘णा' है यथा - आउहिणा २. २. ११, चंडिणा १२. १०. १, दंडिणा १२. १०.२ आदि । १२. ६.९ में प्रयुक्त सारहीण (सारथिना) शब्द में अन्त्य यमक की अपेक्षा से इ दीर्घ की गई है तथा णा का 'आ' हस्व किया गया है। उत्तर कालीन अपभ्रंश में तृतीया विभक्ति एकवचन में 'ण' का प्रयोग होता है।
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