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व्याकरण ।
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(तनु+क) १६.१७.१, बहुय (बहु+क) १७. २०. ७, तंतुय (तंतु+क) ७. ७. २, बालु (बालुय+क) १६. ४. ३, रज्जुय (राजु+क) १६. ३. ३। य (क) का प्रयोग यदा कदा छंद की आवश्यकता पर भी किया गया है यथा-रहिययाइँ (रहित+क) १७. १७.६, कहिययाइँ (कथित+क) १७. १७.६ । इय का उपयोग भी इसी निमित्त से हुआ है यथा - सामलदेहिय (१४.१४, ४) पल्लवजीहिय (१४.१४. ४), पंकयवण्णिय १४.१४.५ आदि । (६) उत्कर्षवाची -
(अ) वर - पा. च में यह स्वार्थे (बिना किसी विशिष्ट अर्थ के) ही प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है जैसा कि इन उदाहरणों से स्पष्ट है -
जिणवर १. २. २, गयवर १. १८. ८, दियवर १. १०. ९, सरवर १. २३. १०, णरवर २. ३. ६, अहिवर ३. ७. ३, गिरिवर ६. ४. ११, पुरवर १०.१३. ४, सुरवर ११. १३. १३, तरुवर १७. ५. ६, कप्पवर-तरुवर १७. ३. ५ आदि ।
___ वर शब्द एक विशेषण के रूप में शब्द के पूर्व भी प्रयुक्त हुआ है। इस स्थिति में उसका अर्थ श्रेष्ठ है। किन्तु उसके बहुधा तथा अनपेक्षित स्थानों पर उपयोग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसका उपयोग भी बिना किसी अर्थ के या केवल छंद की आवश्यकता से किया गया है। यह कथन इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है-वर - गयंद १.२२.६; चर-पल्लव १.२३.२, वर--करिणिउ १.२३.४ वर-णाल १.२३.४; वर-घंटउ १५.३.६ वर-धम्म-चक्क १५. ८. १०, वर - णइ १६. १४. ३, वर-विचित्त - १७. ५. ५ ।
वर के समान ही महाशब्द भी बिना किसी अर्थ के प्रयुक्त हुआ है यथा-महागय -१. १०. ८, महावण १. २३. ६; महारस १. १६. ११; महाउहिण २. २. ११; महामुगिपुंगव २. १५. ९; महाविमाण ४. ११. ८; असुहमहासमुद्द ५. ९.१, कम्म-महाफल ५.१०. ९; महामल ८. १५. ११; तुरय महाजव ८. २२.६; भवियमहाजण ८. २१. ३, महाहव ११. ९. ३, महातरु ११. १२. ९, महातव १३. १२. १३, महागिरि १४. १२.९, महाजल १४. १२. ५, महापह १५. ८. ११, कप्पमहातरुवर १६.११. २, कप्पमहातरु १७. ५.१० आदि।
'सु' का उपयोग 'वर' तथा 'महा' की अपेक्षा संयत रूप से किया गया है। इस कारणसे उसका मूलार्थ बहुत कुछ अंशों में वर्तमान है।
(७) उक्त प्रत्ययों के अतिरिक्त ग्रन्थ में अण, कु, दु, स आदि का उपयोग भी किया गया है। इनका उपयोग उसी अर्थ में हुआ है जिस अर्थ में वे संस्कृत में प्रयुक्त हुए हैं। इस कारण से अलग से उनके उदाहरण देना आवश्यक नहीं समझा गया ।
(८) इस ग्रंथ में अल्पार्थवाची ड, डय, उल्ल, अल्ल, इक आदि प्रत्ययों का प्रयोग सर्वथा नहीं किया गया है। कारक विचार
विभक्तियों के पूर्व मूल शब्द में परिवर्तन
(१) प्राकृत भाषा में ही शब्द के अन्तिम स्वर के पश्चात् आए व्यंजन का लोप कर दिया गया था । इस प्रवृत्ति को अपभ्रंश में पूर्णरूप से सुरक्षित रखा अतः अपभ्रंश में सब शब्दों का अन्त स्वरों में ही होता है। अन्त्य स्वरों में भी काटछांट की गई और दीर्घस्वरो के स्थान पर हस्व स्वरों को स्थान दिया गया। फलतः जो शब्द प्राकृत में आकारान्त, ईकारान्त या ऊकारान्त थे वे अपभ्रंश में अकारान्त, इकारान्त या उकारान्त हो गए किन्तु स्वार्थे य (क) के प्रचुर प्रयोग
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