________________
व्याकरण ।
उज्जल) ९. ५. ३, तहावसाणु (तहा+अवसाणु) १०. ८. ८, बोहप्पायइ (बोहु+उप्पायइ) १०. ८. १०, तमुल्हसिउ (तमु+उल्हसिउ) १०. १०.८, घिएणेव (पिएण+एव) ११. ९.१६, चमरुक्खेवा (चमरु+उक्खेवइ) (चमरु+उक्खेवइ) १४. १२. १४,, णिम्मूलुम्मीलिय (णिम्मूलु+उम्मीलिय) १४. १२. १०, पवणेणाऊरिय (पवणेण
+आऊरिय १४.१५. ६) तथा णाणुप्पण्णु (णाणु+उप्पण्णु) १४. ३०. ११, १५. १. १ । चउरंगुल (चतुस् + अंगुल) ३. २.८, में तथा पुणरवि (पुनः अपि) २. ७. ८ शब्दों में अपभ्रंश में आकर संधि नहीं हुई। ये रूप तो जैसे के तैसे संस्कृत से उठा लिए गए हैं।
लिंग विचार....नपुंसक को हटाने की प्रक्रिया जो प्राकृत में प्रारंभ हुई वह अपभ्रंश में जाकर प्रायः पूरी हो गई। अपभ्रंश में अकारान्त पुल्लिंग कर्ता एकवचन और अकारान्त नपुंसकलिंग कर्ता एक वचन की विभक्ति एक होने से यह जान लेना कठिन होता है कि कौन पुलिंग है या नपुसंकलिंग । संभवतः इसे भी ध्यान में रखकर हेमचन्द्रने नियम ४. ४. ५५ बनाया है।
(१) अपभ्रंश भाषा में शब्दों के लिंग में परिवर्तन हेमचन्द्र व्याकरण के नियम-लिंगमतंत्रम् (४. ४. ४५) के आधार पर किये जाते हैं। फिर भी जिन संस्कृत शब्दों को उनका लिंग बदलकर पा. च. में उपयोग में लाया गया है वे निम्न हैं
(अ) जो संस्कृत में पुल्लिंग किंतु पा. च. में नपुंसकलिंग बना दिए गए हैं वे – सयण ( स्वजन ) १. १३. ८, कडच्छ ( कटाक्ष ) ६. ११. ६, किरण १४. ५. २, ( सायर) १७. १७. ४ । '
(आ) जो संस्कृत में नपुंसकलिंग है किन्तु पा. च. में पुल्लिंग माने गए हैं वे हैं- वय (व्रत ) ४. ८. ६, पत्त (पत्र) १०. ५. २, १३. २. ८, फल १०. ५. ९, तूर (तूर्य) १०. ५. ६, वत्थ (वस्त्र) १०. ५. ८, सकुन (शकुन ) १०. ५. ९, मोत्तिय ( मौक्तिक ) ११. २. १४, छत्त (छत्र ) १३. २. ८, पंकय (पंकज ) १४. २३. १, काणण (कानन) १४. १३. १, पउम (पउम) १६. १३. ३ ।
(इ) संस्कृत के स्त्रीलिंग शब्द दिश का १६. १२. १ पर पुल्लिंग के समान उपयोग हुआ है। इस ग्रन्थ में अन्यत्र दिसिहि प्रयुक्त हुआ है दिसइ नहीं। यह हे. ४. ३५२ के अनुसार है । इ का उपयोग स्त्रीलिंग सप्तमी एक वचन के लिए नहीं होता ।
(ई) संस्कृत के पुल्लिंग शब्द मंत्री को १३. ३. ४ पर स्त्रीलिंग के समान उपयुक्त किया गया है। (२) विशेषणों का लिंग
(अ) जब स्त्रीलिंग तथा पुल्लिंग शब्द का एक सामान्य विशेषण प्रयोजित करना होता है तो उस विशेषण को तथा उन दोनों के लिए यदि एक सामान्य सर्वनाम काम में लाना हो तो उस सर्वनाम को नपुसंकलिंग में रखा गया है। यथा-दुअ. बे वि (कमठ तथा वरुणा) जिल्लजइँ १. १२. १०, अवरूप्परू संझ दिवायरू दिवसि-विरमे आसत्तइँ १०. ९. ९, णिय-णयणहि दिइँ बे वि ताई। कीडतइँ रइ-रस-सुहगयाइँ (१. १७. ४)। जइ एक्कहि बे वि ण ताइँ थंति । १. १६. १०.
(आ) विशेषण तथा विशेष्य को भिन्न लिंगों में प्रयुक्त करने की प्रवृत्ति सर्वत्र दिखाई देती है अतः उसके अलग से उदाहरण देना आवश्यक नहीं समझा गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org