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प्रस्तावना
स्वयंभू (स्व. छ. ६-१०३) तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४२अ २) ने इस छंद का नाम भ्रमरविलास दिया है। तीसरी संधि के ८ तथा अठारहवीं संधि के १९वें कडवकों के पत्ते इस छंद में हैं।
(vi) जिनके विषम पादों में १४ तथा समपादों में १२ मात्राएं हैं उनके विषम-पादों में मात्रागण व्यवस्था तीन चतुर्मात्रागणों तथा एक द्विमात्रागण या एक षण्मात्रागण तथा दो चतुर्मात्रीगणों से हुई है । इनके समपादों में वह एक षण्मात्रा गण, एक चतुर्मात्रागण तथा दो लघु से या तीन चतुर्मात्रागणों से हुई है। इनमें से अंतिम चतुर्मात्रागण प्रायः भगण से व्यक्त हुआ है
विषमपाद–४+४+४+२ या ६+४+४ = १४ समपाद-६+४+UU या ४+४+४ (प्रायः - DU) = १२ स्वयंभू (स्व. छं. ४. ७; ६ - ११६) तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४२अ ८) ने इसे दोहय ( दोहक) नाम दिया है।
दूसरी संधि के १, ३, ६, १०, चौथी संधि के ९; पांचवी संधि के ८, ९, १०, ११; छठवीं संधि का १, सांतवी संधि के ७, १०, १२; ग्यारहवीं संधि के ३, ४, ६, ११; सत्रहवीं संधि के ५, ६, ७, ९, १७, १८ तथा अठारहवीं संधि के ६, ९, १२, १३ और १८ वें कडवकों के पत्ते तथा ग्यारहवीं संधि का ध्रुवक इस छंद में हैं।
(vii) जिनके विषमपादों में १४ तथा समपादों में १३ मात्राएं हैं उनके विषमपादों में मात्रागणों की व्यवस्था छठवें वर्ग के छंद के विषमपादों के समान तथा समपादों में वह चौथे वर्ग के छंद के विषमपादों के समान है
विषमपाद-४+४+४+२ या ६+४+४ = १४ समपाद-६+४+UUU (या - 0 ) या ४+४+४+U = १३
स्वयंभू (स्व. छं. ६. १२६ ) तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४२अ. १४, १५) ने इसका नाम कुसुमितकेतकीहस्त दिया है।
__ दूसरी संधि के ५, ७, ९, तीसरी संधि के ४, ५, १२, छठवीं संधिके २, ७, ८, ११, १३, १६, १८, नौवों संधि के ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, दसवों संधि के २, ३, ४, ६, १०, ११, १२, १४; ग्यारहवीं संधि के २, ५, ७, ८, ९, १२, १३, सत्रहवीं संधि के १, २, ३, ४, १०, ११, १२, १४, १५, १६, १९, २२, २३, अठारहवीं संधि के १, ४, ५, १२ तथा २० वेंक डवकों के पत्ते तथा अठारहवीं संधि का ध्रुवक इस छद में हैं।
(viii ) जिनके विषम पादों में १५ तथा समपादों में १२ मात्राएं हैं उनके विषमपादों में मात्रागणों की व्यवस्था तीन पंचमात्रागणों से या तीन चतुर्मात्रागणों और एक त्रिमात्रागण से की गई है। इनके समपादों में वह व्यवस्था छठवें वर्ग के छंद के समपादों के समान है
विषमपाद-५+५+५ या ४+४+४+३ = १५ समपाद -६+४+ Uण या ४+४+४ = १२
स्वयंभू (स्व. छ. ६-११-९) तथा हेमचन्द्र (छ. शा. ४२अ. १०, ११) ने इस छंद का नाम चन्द्रमलेहिया (चन्द्रमलेखिका) दिया है । दूसरी संधि के १३, पांचवीं संधि के ६ वें, अठारहवीं संधि के ७, १६, १७ तथा २१ वें कडवकों के पत्ते तथा सत्रहवीं संधि का ध्रुवक इस छंद में हैं।
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