________________
छंद चर्चा ।
(ix) जिनके विषमपादों में १५ तथा समपादों में १३ मात्राएं हैं उनके विषमपादों में मात्रागणों की व्यवस्था आठवें वर्ग के छंद के विषम पादों के समान है तथा समपादों में वह चौथे वर्ग के छंद के विषम पादों के समान है
विषमपाद-५+५+५ या ४+४+४+३ = १५ समपाद -६+४+ (या U-) या ४+४+४+U = १३
स्वयंभू (स्व छं. ६ - १२९ तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४२अ १५, १६) ने इस छंद का नाम कुंजर-विलसित दिया है। पांचवी संधि के १२, छठवीं संधि के ३, ६, ९, १०, १२, १७, नौवीं संधि के १, २, ३, दसवीं संधि के ५, ७, ८, ९, १३ वें, सत्रहवी संधि के ८वें तथा अठारहवीं संधि के २ रे कडवकों के पत्ते इस छंद में हैं।
(x) जिनके विषमपादों में १५ तथा समपादों में १४ मात्राएं हैं उनके विषमपादोंकी मात्रागण व्यवस्था आठवें वर्ग के छंद के विषमपादों के समान तथा समपादों में वह छठवें वर्ग के छंद के विषमपादों के समान है
विषमपाद-५+५+५ या ४+४+४+३ = १५ समपाद-४+४+४+२ या ६+४+४ - १४
स्वयंभू (स्व. छं. ६. १३६) तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४२अ. १९ ने इस छंद का नाम अनंगललिता दिया गया है । नौवीं तथा दसवीं संधियों के ध्रुवक तथा पंद्रहवी संधि के १४ वें कडवक का पत्ता इस छंद में है ।
सर्व समचतुष्पदियों के निम्न चार भेद पा. च. में उपलब्ध हैं
(i) जिनके प्रत्येक पाद में ११ मात्राएं हैं उनमें मात्रागणों की व्यवस्था एक षण्मात्रागण्य, एक द्विमात्रागण तथा एक त्रिमात्रागण या दो चतुर्मात्रा गणों और एक त्रिमात्रागण से की गई है
६+ +२+३ या ४+४+३- ११. स्वयंभू (स्व. छ. ६. १५७) ने इसका नाम माणइअ और हेमचन्द्र (छ. शा. ४३ अ. १) ने मारकृति दिया है। दूसरी संधि के १६ वें कडवक का पत्ता इस छन्द में है।
(ii) जिनके प्रत्येक पाद में १२ मात्राएं हैं उनमें मात्रागगों की व्यवस्था अंतरसम चतुष्पदियों के प्रथम वर्ग के छन्द के विषम पादों के समान है- ६+४+२ या ४+४+४.
स्वयंभू (स्व. छं. ६. १५६) तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४३अ १) ने इस छन्द का नाम महानुभावा दिया है। दूसरी संधि के ११ वें, चौथी संधि के ४, ५, ७, पांचवीं संधि के २रे, छठवीं संधिके १५ वें, सातवीं संधि के २, ६, तेरहवीं संधि के १, ६, ७, ११, १३, १७, सत्रहवीं संधि के २४ वें तथा अठारहवीं संधि के १० तथा १४ वें कडवकों के पत्ते और पांचवीं संधि का ध्रुवक इस छन्द में हैं।
(iii ) जिनके प्रत्येक पाद में १३ मात्राएं हैं। इनमें मात्रागणों की व्यवस्था अन्तरसमचतुष्पदीयों के दूसरे वर्ग के छन्द के विषमपादों के समान है- ६+४+३ या ५+५+३ = १३.
___स्वयंभू (स्व. छं. ६. १५७ ) तथा हेमचन्द्र (छं. शा. ४३अ ३) ने इसका नाम अप्सरोविलसित दिया है। कविदर्पण (२.१७ ) में इसे उद्दोहक कहा गया है। दूसरी संघि के ११ वें, तीसरी संधि के ६, १०, चौथी संघि के टवें ; पांचवी संधि के ४थे तथा ग्यारहवीं संधि के १०वें कडवकों के पत्ते इस छन्द में हैं।
(iv ) जिनके प्रत्येक पाद में १४ मात्राएं हैं उनमें मात्रागणों की व्यवस्था अन्तरसम चतुष्पदियों के छठवें वर्ग के छन्द के विषमपादों के समान हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org