________________
१०२
प्रस्तावना (ई) वर्गानुनासिक
जब अनुस्वार परव्यंजन के वर्ग के अंतिम अक्षर में परिवर्तित हो जाता है तब यह वर्गानुनासिक कहलाता है। हे. (८.१.३०) में यह नियम एक विकल्प के रूप में दिया है। जिस स्थान पर यह उस व्याकरण में दिया गया है उससे स्पष्ट है कि इसका क्षेत्र प्राकृत भाषा है। कुछ विद्वानों ने इस नियम का पालन मुद्रित प्रतियों में किया है। यह अवश्य है कि प्राकृत के अनेक नियम अपभ्रंश में भी लागू होते हैं पर इसके लिए प्राचीन लेखकों का बल चाहिए । उस नियम का पालन अपभ्रंश की किसी प्राचीन प्रति में दिखाई नहीं देता । ऐसी अवस्था में उसका पालन, ध्वनिशास्त्र या भाषाशास्त्र की दुहाई देकर, करना उल्टी गंगा बहाना है। प्र. च. की दोनों प्राचीन प्रतियों में यह प्रवृत्ति सर्वथा अविद्यमान है अतः सम्पादित प्रति में इसे प्रश्रय देना उचित नहीं समझा।
वर्तनी संबंधी अन्य परिवर्तन [१] स्वरों का इस्वीकरण -
(अ) आकारान्त तथा ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के अन्तिम स्वर को हस्व करने को सामान्य प्रवृत्ति है यथा महिल (महिला) दिक्ख (दीक्षा) १. १०. १२; जंघ (जवा) ३. २. ८; णिद्द (निद्रा) १०. १२. ८ तथा घरिणि (गृहिणी) १.१०. ४, कंदलि (कन्दली) ४. ४. ८, कामिणि (कामिनी) ९. १. ८ आदि ।
(आ) संस्कृत के च्चि की 'ई' सर्वत्र हस्त की गई है यथा वसिकिय (वशीकृत) (१. ८. ४,५; १. ५, ६. ५. ३; वसिगय (वशीगत) ९. ८. ९; वसिहूय (वशीभूत) ९. २. १ तथा मसिकिय (मसीकृत) ६. १३. १०.।
(इ) 'ई' को हस्व करने के अन्य स्कुट उदाहरण गहिर (गंभीर) ३. १४. २; अलिय (अलीक) २. ८. २. तुरिय (तुरीय) ७. ३. २, पुंडरिय (पुंडरीक) १७. २१. २. वेयणिउ (वेदनीय) ६. १६. ३, सिय (शीत) २. १२.८ . विवरिय (विपरीत) १४.२४. ७ आदि ।
(उ) कभी कभी शब्द के मध्य अन्य दीर्घ स्वर (आ तथा ऊ) हूस्व किए गए हैं । यह संभवतः छंद की अपेक्षा से हुआ है यथा - पयाल (पायाल) ६. -असरालय (आस्रवालप) ६. १६. ७, पाहण (पाषाण) २. १२. ९. विहुणिय (विहूनित ) १५. १०. ८ । [२] स्वरों का दीर्धीकरण
(अ) संयुक्त व्यंजन के सामान्य व्यंजन में परिवर्तित किए जाने पर उसका पूर्व स्वर दीर्घ किया गया हैवीसरिय (विस्मृत) १. २०. २; वीसास (विश्वास) १. २०. ८, सीस (शिष्य) ४. ९. १.; वास (वर्ष) १२. १५. १५. । लुण्ठ (लूड्) १.२३. ३. वीजय (विजय) ५.१.१३. सूसर (सुस्वर) ८. ५. ५, सूवसिद्ध (सुप्रसिद्ध) १०.११. ४, जीह (जिल्हा) १. ४. २., पयाहिण (प्रदक्षिणा) १. २१. ८ दाहिण (दक्षिण) ४.४.४ गाव (गर्व) ९. १२. २ ।
(आ) यदा कदा, संभवतः छंद की उपेक्षा से 'हस्व दोर्षी मिथो वृत्तौ (हे. ८. १. ४) नियमका लाभ लेकर स्वर दीर्घ किए गए हैं यथा कईयण (कविजन) १. ३. ८.; जुवईयण (युवतिजन) १. २०.७; पईसहि (प्रविशन्ति) २.५. १०; तही ५. १२. ९. असी (असि) ५. १२. ११; णगी (णगि) ५. १२. १२; पयडी (प्रकृति) ६. १६. ४; ८. १.४, मई (मति) ७. ८. ४; हरी (हरि) ७. ८. ७; सारहीण १२. ६. ९, बंदीवर (बंदिवर) १३.१२. ६, अवणी (अवनि) १३.१७.१०, सिहीण (सिहिण) (६. ९. १३) आदि । इन उदाहरणों में उन्हे सम्मिलित नहीं किया जा रहा है जो पाद के अन्त में स्पष्टतया छंद की अपेक्षा से दीर्घ किए गए हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org