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प्रस्तावना
पंक्तियों में उन तीन कडवकों की पंक्तियाँ भी सम्मिलित हैं, जिनमें कवि ने क्रमशः ग्रन्थ का प्रमाण, ग्रन्थ के पठन पाठन का परिणाम तथा अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है।
प्रत्येक कडवक सामान्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है । जिस छंद में कडवक आ मुख्य कलेवर रहता है वह पूरा एक भाग है तथा उस भाग के अन्त में शेष कडवक में प्रयुक्त छंद से भिन्न छंद में दूसरा भाग रहता है जो छंदशास्त्र के अनुसार ध्रुवा, ध्रुवक, घत्ता या छकनिका कहलाता है। पा. च. की दोनों प्राचीन प्रतियों में इसे घत्ता नाम दिया है अतः यहां उस भाग का उल्लेख इसी नाम से किया गया है । पा. च. की तीन संधियों के कडवकों के प्रारम्भ में एक छंद
और प्रयुक्त है जिसे प्राचीन प्रतियों में दुवई संज्ञा दी गई है । इस प्रकार कुछ कडवक आदि मध्य तथा अन्त्य इन तीन भागों में विभाजित हैं । हम इन तीनों पर पृथक् पृथक् विचार करेगें। [२] कडवक का आदि भाग
(अ) दुवई पद्यों का उपयोग छठवीं, ग्यारहवीं तथा बारहवीं संधियों के प्रत्येक कडवक में किया गया है । छन्दशास्त्र के अनुसार दुवई यथार्थ में छन्दों के एक वर्ग का नाम है किन्तु वहां केवल एक विशिष्ट छंद के नाम के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जैसा की द्विपदी नाम से ज्ञात होता है इसमें केवल दो पद होते हैं जो सुविधा कि दृष्टि से दो पंक्तियों में लिखे जाते हैं । प्रत्येक पद में मात्राओं की संख्या २८ हैं । इनमें यति सोलह मात्राओं के पश्चात आती है । इस छंद में मात्रागणों की योजना एक षण्मात्रा-गण, पांच चतुर्मात्रागण तथा एक द्विमात्रा गण से की गई है--
६+४+४+४+४+४+२ अंत में सर्वत्र गुरु आता है । अन्य गणों में से द्वितीय तथा षष्ठ गण प्रायः जगण (U – U ) या कहीं कही चार लघु (UUUU ) से व्यक्त हुआ हैं -
६+U - U (या U U U U) +४+४+४+U - U (या U U U U)+२ (--) ये लक्षण प्राकृत पैंगल' में दिए गए लक्षणों से पूर्णतः मिलते हैं। जिन दुवईयों में ये लक्षण पूर्ण रूपसे वर्तमान नहो हैं वे निम्नलिखित है
कुछ दवई पद्यों में दूसरा तथा छठवां गण जगण या चार लघुओं से व्यक्त नहीं हआ वे निम्न हैं - (i) ६-१ की दुवई के प्रथम पद का दूसरा गण तगण (UU - ) से व्यक्त हुआ है। (ii) ६-३ की दुवई के दूसरे पद का दूसरा गण दो गुरुओं (--) द्वारा व्यक्त किया गया है । (iii) १२-४ की दुवई के प्रथम पद का दूसरा मात्रागण तगण (UU - ) से व्यक्त किया गया है। इस पद का तीसरा मात्रापण जगण में व्यक्त हुआ है। (iv) १२-५ की दुवई के प्रथम पद का दूसरा मात्रागण दो गुरुओं (--) द्वारा व्यक्त किया गया है।
दुवई छंदो में जो अन्य अनियमितताएं देखी गई हैं वे निम्नानुसार हैं - (i) दुवई छंद के विषय में यह स्पष्ट नियम है कि उसके पद के अंत का गण एक गुरु ही हो । इस नियम का पालन छठवीं संधि के १, ५, ६, १६ तथा १७, ग्यारहवीं संधि १, ४, ९ तथा १३ एवं बारहवीं संधि के १,२,३, ४, ७, ९ तथा १५ वें कडवकों की दुवईयों के दोनों पादों में नहीं हुआ हैं अतः उन्हें दुवई छन्द की अपेक्षा से 'दीहो संजुत्तपरो बिंदुजुओ पडिओ अ चरणांते-'-नियम के अनुसार दीर्घ मानना आवश्यक है।
१. १. १५४ । २. प्रा. पैं. १. २ ।
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