________________
छंद चर्चा नियम सर्वथा निरुपयोगी है। ऐसी स्थिति में पा. च. के घत्ताओं के छंद के निर्धारण में बड़ी उलझन है जिसकी जटिलता इस उदाहरण से स्पष्ट है—- तीसरी संधि के २ रे कडवक के घत्ते के चारों पादों का अन्त लघु में है । इसके विषम पादों में १२ तथा समपादों में ११ मात्राएं हैं । इस के पादान्त लघु को उसी रूप में ग्रहण करने से वह मकरध्वजहास नामक छंद होगा । केवल विषम पादान्तों को गुरु मानने से दोहा, केवल सम पादान्तों को गुरु मानने से महानुभावा तथा सब पादों को गुरु मानने से वह उपदोहक होगा । किस पाद के अन्त्य लघु को गुरु माना जाए इस सम्बन्ध में हमें संधि के अन्य घत्तों से सहायता मिल सकती थी क्योकी जो नियम उनमें लगाया गया उसी नियम को इस घत्ते में प्रयुक्त करना या जिस छंद में संधि के अन्य घत्ते हैं उसी छंद में इसे परिणत करना न्याय्य होता । पर दूसरी संधि के छंदों के घत्तों में पादान्त लघु को गुरु मानकर उन्हें एक ही छंद के बनाना संभव नहीं क्योंकि उनके लघु पादान्तों को इच्छानुसार गुरु मानने पर भी वे सब एक प्रकार के नहीं होते जैसे की छठवें कड़वक के घत्ते के सब पादों का अन्त लघु में है और सब में १३ मात्राएं हैं; सातवें कडवक के विषम पादों का अन्त गुरु में है और उनमें क्रमशः १३ और १२ मात्राएं हैं तथा सम पादों का अन्त लघु में हैं और उनमें ११, ११ मात्राएं हैं; पांचवें कडवक के प्रथम पाद को छोड़कर शेष सबका अन्त लघु में है । प्रथम में १४ मात्राएं है तथा शेष सब में १३, १३, मात्राएं । अन्य कडवकों के घत्ताओं की स्थिति भी इनसे भिन्न नहीं । ऐसी अवस्था में छंद के मात्रागणों की व्यवस्था से हमें कुछ सहायता मिल सकती थी किन्तु चतुष्पदी छंदों के मात्रागणों की व्यवस्था इतनी लचीली है तथा दो छंद ग्रन्थों में एक ही छंद के लिए भिन्न भिन्न मात्रागणों की व्यवस्था का विधान है कि इस दिशा में सहायता के लिये देखना व्यर्थ है । यह पादान्त लघु को गुरु मानने की समस्या 'ए' तथा 'ओ' को छंद की अपेक्षा से लघु या गुरु मानने के नियम से और भी जटिल हो गई है । कई स्थल ऐसे आते हैं जहाँ यह निश्चय करना आवश्यक हो जाता है कि क्या पादान्त 'ए' या 'ओ' को गुरु माना जाए। उदाहरण के लिए १८ वीं संधि के १६वें कडवक का घत्ता लीजिए | इसके प्रथम पाद में १४ मात्राएं है और अन्त लघु से है तथा तृतीय पाद में १५ मात्राएं है और अन्त 'ओ' से है । यहां लघु को गुरु मानना या गुरु को लघु मानना आवश्यक है । कहीं कहीं इन दोनों में दोनों क्रियाएं आवश्यक होती हैं । अठारहवीं संधि के ९ वें कडवक के घत्ते को लीजिए | इसके प्रथम पाद में १३ मात्राएं हैं और अन्त लघु से है तथा तृतीय पाद में १५ मात्राएं हैं तथा अन्त 'ओ' से है; अतः यहाँ दोनो विषम पादों को समान बनाने के लिये पादान्त लघु को गुरु तथा पादान्त 'ओ' को लघु मानना आवश्यक है । इन सब उलझनों को देखकर पा. च. के घत्ताओं के छंद का निर्धारण करने के लिए इस लघु गुरु सम्बन्धी समस्या के बारे में निम्न नियमों का पालन किया है
( i ) यदि पादान्त लघु हैं तथा चतुष्पदियों के प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ तथा षट्पदियों के प्रथम और चतुर्थ, द्वितीय और पंचम तथा तृतीय और षष्ठ पादों की मात्रासंख्या समान है तो लघु को गुरु नहीं माना है ।
८९
(ii) यथि चतुष्पदियों के प्रथम या द्वितीय पाद में तृतीय या चतुर्थ की अपेक्षा या तृतीय या चतुर्थ में प्रथम या द्वितीय की अपेक्षा तथा षट्पदियों के प्रथम या तृतीय पाद में चतुर्थ या षष्ठ पाद की अपेक्षा या चतुर्थ या षष्ट पाद में प्रथम या तृतीय की अपेक्षा एक मात्रा कम हो तथा जिस पाद में मात्रा कम हो उसका अन्त लघु में हो तो उसे गुरु माना गया है ।
(iii) जिस घत्ते में लघु को गुरु मानकर भी अपेक्षित पादों की मात्राओं की संख्या समान नहीं होती वहां लघु को गुरु नहीं माना । उदाहरण के लिए सातवीं संधि के ५ वें कडवक को देखिए । इस कडवक का घत्ता एक चतुष्पदी छंद है जिस के प्रथमपाद में १२ तथा तृतीय पाद में १४ मात्राएं हैं। इन दोनों पादों का अन्त लघु में है । यहाँ प्रथम पाद
१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org