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प्रस्तावना
आधार के विषय में कहीं कुछ नहीं कहा और न किसी अन्य छंदशास्त्रकर्ता ने ही इस विषय पर कोई प्रकाश डाला है। इसका परिणाम यह हुआ है कि छंदशास्त्र-लेखक छंदों को इच्छानुसार एक या दूसरे वर्ग में समावेशित करते आए हैं। इसका उत्तम उदाहरण ६२ मात्राओं का वही घत्ता छंद है जो छंदोनुशासन तथा प्राकृत पैंगलम् (१.९९) में द्विपदी, छंदकोश (५.४३ ) में चतुष्पदी तथा कविदर्पण (२.२९) में षट्पदी माना गया है । छंदों को इन तीनों वर्गों में विभाजित करने का आधार — यति' हो सकती थी । जहाँ यति आती है उसके पूर्व भाग को एक पाद मानने से समस्या बहुत कुछ सुलझ जाती किंतु छंदग्रन्थ में इसके विशिष्ट प्रयोजन का उद्देश्य भी भिन्न दिखाई देता है । कुछ छन्दग्रंथों में इस यति को पाद का अन्त माना है और किसीने उसे वर्णनक्रम या किसी भाव विशिष्ट की अभिव्यक्ति के बीच केवल एक विश्राम माना है न कि उस वर्णनक्रम या भावविशिष्ट की अभिव्यक्ति का अन्त । अतः जो दूसरे मतवाले यति को पाद का अन्त नहीं मानते हेमचन्द्र इसी दूसरे मत के प्रतीत होते है इस कारण से उन्होंने उस ६२ मात्राओं वाले छंद को ( हेमचन्द्र के अनुसार इसे छन्द का नाम छडुनिका है) द्विपदी माना है । इस छंद में चार यतियां हैं। कविदर्पणसार पहले मत के हैं, अतः उसने इस एक षट्पदी माना है। तथा छंदकोश का कर्ता मध्यस्थ है जो इच्छानुसार यति को पादान्त मानता है या नहीं भी मानता।
पा. च. में जहाँ भी घत्ता के रूप में प्रयुक्त छंदों में यति आई है वहाँ वहाँ पादान्त सूचक खड़ी लकीर से उसे सूचित किया है । इस नियम को दृष्टि में रखकर जब हम पा. च. के घत्ताओं को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ के घत्ताओं में चतुष्पदी एवं षट्पदी छंदों का ही उपयोग हुआ है, द्विपदी का उपयोग सर्वथा नहीं किया गया है। पा. च. की अठारह संधियों में से छह संधियों में षट्पदी घत्ताओं का तथा शेष १२ में चतुष्पदी घत्ताओं का उपयोग किया गया है। जिनमें षट्पदी घत्ता हैं वे हैं १ली, ८वी, १२वी, १४वी, १५वीं, तथा १६वीं संधियां । भिन्न भिन्न संधियों में भिन्न भिन्न वर्गों के छंदो के प्रयोग का उद्देश्य काव्य में विविधता लाकर उसे एकरूपता और नीरसता से बचाना रहा है। फिर भी अपभ्रंश कवि एक संधि में एक ही छंद या उसके केवल एक ही भेद या प्रभेद का घत्ता के रूप में उपयोग करते रहे हैं। पद्मकीर्ति ने अपने काव्य में इस परम्परा का पूर्ण पालन नहीं किया। उसने पा. च. की किसी एक विशिष्ट संधि में एक वर्ग के छंदों का तो उपयोग किया है पर केवल एक ही छंद या उसके एक ही भेद प्रभेद का उपयोग नहीं किया। यह अगले विवेचन में छंदों के विश्लेषण से स्पष्ट होगा ।
(आ) पादान्त लघु गुरु के प्रश्न पर विचार—पत्ता छंदों का विश्लेषण एवं निर्धारण करने के पूर्व छंदशास्त्र के उस नियम पर विचार कर लेना आवश्यक है जिसके अनुसार पादान्त लघु गुरु मान लिया जाता है। छंद का निर्धारण प्रायः उसके पादों की मात्राओं की संख्या के आधार पर ही किया जाता है। एक मात्रा की कमी या वृद्धि से छंद के प्रकार में भेद आता है। इस कारण यदि छंदों का सही सही निर्धारण करना है तो सर्व प्रथम उसके पादों की मात्राओं की संख्या को निश्चित करना आवश्यक है । इन मात्राओं की संख्या को निश्चित करने में पादान्त लघु को गुरु मानने के इस नियम को दृष्टि में रखना पड़ता है जो अत्यन्त उलझा हुआ है । किसी भी छंद ग्रन्थ में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि किस परिस्थिति में पादान्त लधु को गुरु माना जाना चाहिए। केवल हेमचन्द्र ने इस सम्बन्ध में प्रथमतः एक का उल्लेख किया है । इस नियम के अनुसार पादान्त लघु सर्वत्र गुरु माना जाना चाहिए । तदनंतर इस सामान्य नियम के अपवाद दिये हैं । इन अपवादों का सारांश यह हैं कि ध्रुवा या घत्ता छंद के पादों के अन्त में छंद की अपेक्षा के अनुसार लघु या गुरु माना जाए । यह अपवाद केवल उस स्थिति में उपयोगी है जहाँ पहिले से यह ज्ञात है कि छंद का प्रकार क्या है; किंतु जहां छंद की मात्राओं तथा अन्य लक्षणों के आधार पर उसके प्रकार का निर्धारण करना हो वहाँ यह
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