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छंद चर्चा
(ii) बारहवी संधि के ७ वें कडवक की दुवई के पहले पद में यति १५ मात्राओं के पश्चात् आई है। (iii) छठवीं संधि के पहले कडवक की दुवई के दोनों पादों में तथा १७ वें कडवक के पहिले पाद में यति शब्द के मध्य में आई है।
(आ) ग्यारहवीं संधि के प्रत्येक कडवक में दुवई छंद के भी पूर्व पांच पादों का (जो मुद्रित प्रति में तीन पंक्तियों में लिखा गया है) एक छंद प्रयुक्त हुआ है। इसी छंद के तत्काल पश्चात एक और छंद आया है जो दो पंक्तियों में लिखा गया है। प्राचीन प्रति 'क' में प्रथम का नाम वस्तु तथा 'ख' प्रति में उसे मत्ता कहा गया है । दो पंक्तियों में लिखे गये छंद को प्रतियों में दोहयं, दोहडा या दोहा नाम किया गया है। इस प्रकार उन छंदों के नाम के निर्देश में सर्वत्र एकरूपता नहीं पाई जाती । यदि ये नाम ग्रन्थकार के द्वारा दिए गए होते तो छंद के नामों में एकरूपता होती । स्पष्ट है कि छंदों के ये नाम प्रति करने वालों ने दिये हैं । यदि ये नाम ग्रन्थकार देता तों एक ही छद के भिन्न नाम न देता । हेमचन्द्र ने मत्ता छंद के छह प्रकारों के लक्षण बतलाकर यह कथन किया है- आसां तृतीयस्य पंचमेऽनुप्रासेऽन्ते दोहकादि चेद्वस्तु रद्दा(डा) वा - इनके (मत्ता के ) छह प्रकारों के तीसरे तथा पांचवें पादों के अनुप्रासयुक्त होने पर तथा अंत में दोहा छन्द के प्रयुक्त किए जाने पर वह समूचा एक छन्द हो जाता है तथा उसे वस्तु या रडा छंद कहा जाता है। स्वयंभू ने भीसुपसिद्ध-णव-चलना । एतु वत्थु रड्डो विजाणय - कहकर रड्डा छंद की प्रायः वही व्याख्या की है। इससे स्पष्ट है कि जिन दो छन्दों को प्राचीन प्रतियों में वस्तु या मत्ता तथा दोहा की पृथक पृथक संज्ञा दी गई है वे अलग अलग स्वतन्त्र रूप से आने पर उन उन नामों से ज्ञात अवश्य थे किन्तु जब वे एक साथ प्रयुक्त होते थे और दोहा छंद अन्य के पश्चात् आता था तब वे अपने अपने स्वतन्त्र नाम से ज्ञात न होकर एक सामूहिक नाम से ज्ञात होते थे। वह सामूहिक नाम वस्तु या रड्डा था । अतः उन छंदों के जो नाम प्राचीन प्रतियों में दिए गए हैं वे उन २ छंदों के यथार्थ नाम होते हुए भी छंद शास्त्र की दृष्टि से उनके सही नाम नहीं हैं। 'क' प्रति का नामांकन तो सर्वथा भ्रामक है क्योंकि पांच पादों का वस्तु छंद होता ही नहीं है वह तो नौ पादों का ही होता है जब कि इन नौ पादों में दोहा के चार पाद भी शामिल होते हैं। 'ख' प्रति का नामांकन यथार्थ है पर छंद-शास्त्र के अनुसार ठीक नहीं। चूंकि दोनों प्राचीन प्रतियों में से 'ख' प्रति का नामाकंन यथार्थ के समीप है अतः उसे ही मुद्रप्रतियों में अपनाया गया है। छंद का सही नाम देने का विचार अवश्य आया था पर मुद्रप्रति को प्राचीन प्रतियों के यथासंभव समीप रखने की भावना को यह परिवर्तन सह्य नहीं हुआ है ।
पांच पदों का उक्त मत्ता छंद एक प्राचीन छंद है । वह एक समय दोहा के समान ही कवियों का प्रिय छंद था । इस कथन की पुष्टि इस बात से होती है कि विरहांक से लेकर कविदर्पण के रचियता तक के सभी छंदशास्त्र कर्ता विस्तार से इसका विवेचन करते रहे है । रड्डा छंद के प्रादुर्भाव से मत्ता का स्वतंत्र उपयोग किया जाना बंद हो गया जैसा कि प्राकृत पैङ्गलम् से स्पष्ट हो जाता है जहाँ कि इस छंद की स्वतंत्र सत्ता ही स्वीकार नहीं की गई है; उसका नाग मात्र से भी उल्लेख नहीं है तथा उसका विवेचन रड्डा के विवेचन के ही अन्तर्भूत है । प्राकृत पैङ्गलम् में रडा के सात भेदों का उल्लेख है। इन सबमें दोहा एक ही प्रकार का प्रयुक्त हुआ है अतः रडा के सात भेद यथार्थ में मत्ता के ही भेद हैं।
विरहांक ने मत्ता के चार भेद बताए हैं-करही, मादनिका, चारुनेत्री तथा राहसेनी। इनमें से करही के विषम पादो में १३ तथा सम पादों में ११, मादनिका के विषम पादों में १४ तथा सम पादों में १२, चारुनेत्री के विषम पादों में १५ तथा सम पादों में १३ एवं राहुसेनो के विषम पादों में १६ तथा सम पादों में १४ मात्राएँ होती है । विरहांक ने
१. छ. सा. ३६ व. १५ । २. वृत्तजातिसमुच्चय १. २९. ३० ।
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