________________
५४
जैनेतर मतों का उल्लेख :
भारत में धर्म केवल चिन्तन का विषय नहीं रहा किन्तु वह सामाजिक आचार की आधारशिला भी रहा है। भारतीयों के जीवन में धर्म इतना समाया कि उनका प्रत्येक कार्य धार्मिक मर्यादाओं और सीमाओं से नियमित होता रहा । धर्म की इस व्यापकता के कारण काव्यग्रन्थों और चारित्रग्रन्थों में भी उसके स्वरूप की झलक मिल जाति हैं । पा. च. एक चरित्रग्रन्थ है और उसके नायक हैं पार्श्वनाथ । इस कारण इसमें जैनधर्म की विचार चर्चा होना स्वाभाविक है । उसीके प्रसङ्ग में एक अन्य धर्म की एक मान्यता का उल्लेख इसमें किया गया है । ग्रन्थकार इस जग स्थिति के विवरण के प्रसङ्ग में उस हिन्दू पौराणिक मान्यता पर विचार कर लेता है जिसके अनुसार यह पृथ्वी शेष नाग और कील के माध्यम से कूर्म पर आधारित है । इस मान्यता को अस्वीकार करते हुए ग्रन्थकारने जैन-मान्यता के अनुसार इस समस्त जगको घनवात, तनुवात तथा घनोदधिवात वलयों के द्वारा स्थिर माना है ।'
प्रस्तावना
ग्रन्थ में अन्य दो स्थानों पर जैनेतर धर्मावलम्बी तापसो का वर्णन किया है ।" यह वर्णन दोनों स्थानों पर प्रायः समान ही है । इस वर्णन में तापसों को जटा, करों और कानों में रुद्राक्षमाला, गले में मणियों की माला धारण किये, पंचाग्नि तप करते तथा शून्य पद का ध्यान करते हुए चित्रित किया गया है । तापसों का यह वर्णन वास्तविक है । इस द्वारा ग्रन्थकार पाठकों में इन तापसों के प्रति अरुचि उत्पन्न करना चाहता है । वह तापसों को कुछ वस्तुओं पर अवलम्बित तथा उन वस्तुओं के प्रति सराग बताकर यह सिद्ध कर रहा है कि अवलम्बिता और सरागता मुक्ति के लिए साधक नहीं बाधक है तथा मन की पूर्ण शुद्धि के बिना तपस्या व्यर्थ है ।
(अ) सम्यक्त्व का स्वरूप (आ) श्रावकधर्म
पा. च. में धार्मिकचिंतन
जैनधर्म का विवेचन :―
ग्रन्थ में जैन मान्यता के आचार विचार एवं सिद्धान्त सम्बन्धी अनेक चर्चाएं हैं। इन चर्चाओं को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित कर उनका विवेचन किया जा सकता है :
(इ) मुनिधर्म
(ई) कर्मसिद्धान्त
(उ) विश्व के स्वरूप का विवरण
Jain Education International
(अ) सम्यक्त्व का स्वरूप :
जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक संसारी जीव का लक्ष्य मोक्ष है । इसकी प्राप्ति का उपाय शुद्धदर्शन, शुद्धज्ञान और शुद्ध चारित्र है । दर्शन से आशय दृष्टि या दृष्टिकोण है । जब यह दृष्टि शुद्ध होती है तब जीव शुद्धज्ञान ग्रहण करने में समर्थ होता है और तदनुरूप अपना आचरण भी शुद्ध करता है । फलतः वह अपने लक्ष्य की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता है। शुद्ध दृष्टि की प्राप्ति शास्त्रोक्त तत्त्वों के स्वरूप में सच्ची श्रद्धा से प्राप्त होती हैं तत्वों के स्वरूप में यह सच्ची श्रद्धा ही शुद्ध दर्शन ज्ञान की गहनता से बचने के लिए सम्यक्त्व की तथा १३. १०. ७ से १०.
।"
है जिसे सम्यक्त्व की १. पा. च. १६. ४. त. सू. १. २.
संज्ञा दी गई है । पा. च. में तत्वों के स्वरूप के १७. १ से १०. २. वही ७. १३. ७ से १०
३. त. सू. १. १.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org