________________
प्रस्तावना
कर्मसिद्धान्त :
"जो जस करइ सो तस फल पावइ "-यह कर्म सिद्धान्त का सार है। प्रस्तुत समूचा ग्रन्थ इसी सिद्धान्त को उदाहृत करता है । पार्श्वनाथ आपने प्रत्येक उत्तरोत्तर जन्म में अधिकाधिक अच्छे कर्म करते हुए बताए गए हैं और फलतः ऊंचे से और अधिक ऊंचे स्वर्ग में स्थान पाते हुए बताए गए हैं । अंतिम जन्म में उन्हें तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है और फिर वे मोक्षगामी होते हैं । इसके विपरीत कमठ अपने जन्मों में बुरे बुरे कर्म करता है ओर इसी संसार में तथा नरक में अनेक दुख पाता है। यह कर्मसिद्धान्त का अत्यन्त सरलीकृत रूप है; पर जैन तत्त्व-चिन्तकों ने कर्म और उसके फल के सम्बन्ध में गहन चिन्तन कर उसके सिद्धान्त को यथार्थ सिद्धान्त का रूप दिया है।
जैन सिद्धान्त में स्वीकृत जीवाजीव आदि सात तत्वों में चौथा बन्ध है। कषाययुक्त होने एर जीव के साथ कर्मपरमाणुओं का जो संबन्ध होता है वह कर्मबन्ध है । यह बंध चार प्रकार का होता है- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । प्रकृति वस्तु के स्वभाव को कहते हैं; अतः जीव से लिप्त हुए कर्म-परमाणुओं में जिस जिस प्रकार की परिणामउत्पादक शक्तियां आती हैं उन्हें कर्म-प्रकृतियां कहा गया है। ये दो प्रकार की मानी गई हैं-मूल और उत्तर । पा. च. में इन्हीं दो प्रकार की प्रकृतियों की चर्चा है। मूलप्रकृतियां आठ हैं -ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आयु, नाम, गोत्र तथा अंतराय । इन आठ के जो प्रभेद हैं उन्हें उत्तरप्रकृतियां कहा गया है। ज्ञानावरणीय की पांच, दर्शनावरणीय की दो, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्राईस, आयुकी चार, नाम की तेरान्नवे, गोत्र की दो, तथा अंतराय की पांच उत्तरप्रकृतियां होती हैं। इनकी कुल संख्या एकसौ अडतालीस है । पा. च. में इन्हीं प्रकृतियों को आस्रव का आलय कहकर . बताया गया है कि समस्त चराचर जगत इन्हीं से बंधा हुआ है, जीव इन्हीं के कारण सुख-दुख पाता है और संसार में भटकता-फिरता है। विश्व के स्वरूप का वर्णन :
पा. च. में विश्व के स्वरूप का वर्णन विस्तार से किया गया हैं । यथार्थतः ग्रन्थ की अंतिम तीन संधियां विश्व के स्वरूप के वर्णन को विषय बनाकर रची गई हैं । इन संधियों में आकाश, लोकाकाशै मेरुपर्वत, सात नरके, सोलह स्वर्ग', देवों के भेदैप्रभेद, तिर्यग्लोक, जम्बू द्वीपे , अढाई द्वी, उत्पर्पिणी और अवसर्पिणी काल तथा उनके भेद एवं उनमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों का विवरण, त्रेसठ-शालाका पुरुष तथा उनसे संबंधित समस्त जानकारी, चार गतियों" आदि का विवरण विस्तार पूर्वक किए गए हैं। इनके वणेन में ग्रन्थकारने सामान्यतः तिलोयपण्णत्ति का अनुसरण किया है किन्तु कुछ के सम्बन्ध में पा. च. तथा तिलोयपण्णत्ति एकमत नहीं । वे निम्नलिखित हैं :
— (१) पा. च. में ज्योतिष्क देवों की स्थिति बताते हुए कौन किससे उपर स्थित है इसका उल्लेख किया गया है। तदनुसार नक्षत्रपंक्ति से उपर क्रमशः बुध, मंगल और असुरमंत्रि (शुक्र) स्थित बताए गए हैं। तिलोयपण्णेत्ति में बुध से तत्काल उपर शुक्र, उससे उपर बृहस्पति और उससे उपर मंगल की स्थिति बताई गई है। राजवार्तिक टीका में इन तीनों की
१. त. स. १. ४. २. पा. च. २. ८. ८; त. स. ८. २. ३. पा. च. ६. १७. १, २. ४. पा. च.. ६. १५. ८-१३. ५. वही ६. १६. १-६. ६. इनके नामों के लिए देखिए टिप्पणियां पृष्ठ २०२ और २०३. ७. पा. च. ६. १६. ७-११. ८. वही १६. २. २-९. वही १६. २. ३, ४. १०. वही १६. २. ६-९ ११. वही १६. ४. १-१०. १२. वही १६. पूर्वा और पूर्वा कडवक. १३. वही १६.७ वा ८वां और ९वां कडवक. १४ वही १६. १०.१-५. १५. वही १६ १०.३, ८ तथा ११ वां, १२वां और १३ वा कडवक १६. वही. १६. १४, १५, १६ कडवक. १७. वही. १७. ४ से ९ कडवक १८. वही. १७. १० से २२. कडवक. १९. वही. १८.१ से ११ कडवक. २०. वही. १६. ७-७. ८.२१. ७.८९, ७. ९३, ७.९६. २२. त सू. ४ १२ की टीका.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org