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शब्दावलि
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(१) दियह (१.५. ९, ८. ४. ३) आकाश या स्वर्ग के अर्थ में प्रयुक्त । (२) साहिवि (५. ९. २) सहकर (३) आसासिउ (८. १५. १०) पहुँचा के (४) धणुहर( ११. ९. ५) धनुष के (५) सहाउ (१२. ५. १) साथ । (६) अप्पप्प (१४. ६. ५) अध्यात्म या आत्म (७) अद्भुमिहि (१४. १७. ९) आठों
प्रन्थ में कुछ ऐसे भी शब्द हैं जिनका अर्थ संदिग्ध हैं । वे हैं ------ (१) पुणरवि (२. ७. ८) संभावित अर्थ - पुनः अपि (२) रुहिणि (२. ७. १०) , , जाल (३) दोहट्ट ( ३. २. ४) , , दुःहट्ट (४) देवति ( ३. ९. २)
देव+अति (५) परीवा (४. १. ११) , , परि+इत = चलागया (६) णविय (४. २. ३)
दत्त = दिया (७) परिभविय (८. ११. १), " व्याप्त (८) छडउ (८. १८. ९), "
छिडकाव (९) कउ (१०. ३. ६)
गर्जन (१०) सरह (१२. २. ४)
सरोष (११) सिप (१३. २. ४)
सिप्प = शिल्प (१२) चक्कल (१३. १०.८) , , छिद्रयुक्त काष्ट (१३) बालि (१८. ३. ७) , , बालोवाला (१४) आलि (१८. १८. ८) ,, अलीक, उपसर्ग
प्रन्थकार ने अपने पूरे ग्रन्थ में कुछ शब्दों को एक ही प्रकार से नहीं लिखा है । भिन्न भिन्न स्थानों पर वे भिन्न प्रकार से लिखे गये हैं । यह लिपिकारों की देन नहीं है, क्योकि शब्द में परिवर्तन से छंद भंग होता है । वे शब्द हैं :
अहवइ (१.३.१) जो अहवा (१.६.६) और अहव (१.१२.१) रूप से भी लिखा गया है। उसी प्रकार से उप्परि (१.१४. ९) उवरि (३.१३. ७) रूप से; अणेय (२.८.४) अण्णेक रूपसे, अप्पय (१.३. ८) अप्पाणय (१. २. ५) तथा अप्प (१३. १०. ३) रूप से; भडारय (३. १. १) भडारा (१८. ११. १०) रूप से; भायर (१. १३. १) भाय (१.१५. ८) रूप से; पुहइ (१. ७. १०) पुहवि (१८. ८. १) रूप से तथा उत्तुंग (१.७. ९) उत्तंग (६.१५. ४) रूप से भी लिखे गये हैं। एक शब्द को इस प्रकार जब भिन्न भिन्न रूप से लिखने की परम्परा रूढ हो जाती है तब इन रूपों को उसी शब्द के वैकल्पिक रूप मानकर उन्हें शुद्धता का जामा पहिना दिया जाता है जैसा कि संस्कृत के पृथिवी और पृथ्वी शब्दों का हुआ है।
ग्रन्थ में कुछ शब्द इसप्रकार के भी है जिनके बीच 'य' प्रक्षिप्त है। वे हैं :(१) सयरु (६. १. १०) शुद्धरूप है सरु । (२) कलयलु (८.१२.५) शुद्ध शब्द है कललु ।
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