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प्रस्तावना
जाता है कि रात्रि ओर दिन का भेद ही समाप्त हो जाता है । फिर शिशिरकाल आ जाता है जिसमें हिम और शीत गरीबों के मन और देह का शोषण करते हैं। दारिद्रय पीडित व्यक्ति करों को ही वस्त्रके समान शरीर पर लपेटकर कष्टपूर्वक रात्रि व्यतीत कर पाते हैं। उस समय सरोवर हिम से आहतसे होकर तथा वृक्ष पवन से ताडितसे होकर म्लानसे दिखाई देते हैं । घास-पात सूख जाता है इस कारण से गाय-भैंसो के पेट नहीं भरते परिणामतः उनका शरीर दुर्बल हो जाता है। इन तीनो ऋतुओं का दुखदाई वर्णन एक विशिष्ट योजना के अनुसार हुआ है। ये वर्णन चक्रवर्ती कनकप्रभ के राज्यकाल के वर्णन के अन्तर्गत किये गए हैं। इन वर्णनों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है कि संसार की प्रत्येक वस्तु ओर वर्ष का हर काल दुखद है अत इनके प्रति वैराग्यभाव ही श्रेयस्कर है। इससे चक्रवर्ती कनकप्रभ की भावी विरक्ति के कारण की सूचना मिल जाती है। -
वसन्तऋतु का वर्णन दूसरी पृष्ठ भूमि में किया गया है। युद्ध में पार्श्वनाथ की विजय-प्राप्ति के पश्चात् वसन्त का आगमन हुआ है। नरनारियों के मनमें पहलेसे ही आनन्द उमड रहा है उसीके अनुरूप प्रकृति ने भी आनन्द मनाना प्रारंभ किया। उद्यानों में कुसुमों की सुगन्ध प्रसार पाने लगी; मालती फूल उठी, कोकिल की काकली सुनाई पडने लगी। आमों में मंजरी सज उठी। पक्षी उस मंजरी को चोच में दबाकर मनुष्यों में उसका प्रदर्शन करने लगे मानों वसन्तनरेन्द्र का आज्ञापत्र घुमा रहे हों।' फलतः स्थान पर हिंडोले डल गए। मर्दल ओर तूर्य की ध्वनि चन्द्र के समान मन को भाने लगी और विलासिनी स्त्रियां सुख पाने लगीं।
पा. च. में वनों तथा पर्वतों का वर्णन विस्तार से दिया गया है । वन के वर्णन में बहत्तर वृक्षों के नामों का उल्लेख किया गया है । इन पर्वत और वनों के वर्णन में उनकी दुर्गमता ओर दुरूहता पर ही विशेष जोर किया गया है। वे संचार के लिए अयोग्य और मनुष्य के प्रवेश के लिए कठिन हैं। संभवतः इसी कारण से मुनि उनमें शांति का अनुभव कर ध्यान
ओर चिन्तन में लीन रह सकते थे । (३) स्त्रीपुरुष-वर्णन :
__ पा. च. के अनुसार शरीर की दृष्टि से वह मनुष्य आदर्श पुरुष माना जाता है जिसके चरण कूर्म के समान उन्नत हों; जिसका बदन विशाल हो, कटि सिंह की कमर के समान हों, आँखे लाल हों, हाथ लंबे और बलिष्ट हो और आवाज गंभीर हो । "इन शारीरिक गुणों के साथ मनुष्य को आंतरिक गुणों से युक्त होना चाहिए । आंतरिक गुणों में दया ओर धर्म का विशेष स्थान माना गया है । इनके होनेपर ही वह दूसरे मनुष्यों से मित्रता का व्यवहार करता है, विद्वानों की संगति करता है और मातापिता और गुरु की सेवा करता है। साथ ही उसमें दूसरे के धन ओर स्त्री तथा दुर्जनो की संगति के लिए इच्छा नहीं होती है। इस प्रकार के मनुष्य को अपने वृद्धावस्थाके लक्षण दिखाई देते ही अपने ज्येष्ठ पुत्र पर भार सोंपकर परमार्थ चिन्तन में लीन होजाना चाहिए।
___ पा. च में स्त्री तथा उसके सौंदर्य का वर्णन अनेक स्थानों पर हुआ है । वह वर्णन प्रायः एक ही सांचे में ढला हुआ है और परंपरागत शैली का है । उन वर्णनों में स्त्री का मुख शशी के समान, वाणी कोकिल के समान, वर्ण पंकज या गोरोचन के समान , नयन नीलोत्पल के समान, कर करिणी के कर समाने, गति हंस के समान , तथा केश कुटिलै, वदन
१. पा. च. १३. ५. १०, ११। २. वही ५. ३. ६-९ तथा ५. ४. ७. ३. ५. ४. १ से ९। ४. पा. च. ५.५. ३-६। ५. वही ८. ४. ८। ६. वही ६. ९. ६ । ७ वही १४. १४.५। ८. वही १, ९.३; ५. २. २ । ९. वही ६. १. ८ । १०. वही १. ९. ८. ११. वही १. ९. ५, ५, २. ३.
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