________________
सामाजिक रूपरेखा।
३
जो कुल-क्रम से राजाकी सेवा करते आए हों।' इस प्रकार राजा द्वारा स्वयं ही छत्तीस विभिन्न पदों पर नियुक्तियां की जाती थी। इन सब पदाधिकारियों की सहायता से ही राजा, अपनी और अपने राज्य की रक्षा करने में और शत्रुओं का नाशकरने में समर्थ हो जाता है। इसके लिए वह साम, दाम, दण्ड और भेद का उचित उपयोग करता था। राज्य संबंधी किसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विचार हेतु वह अपनी प्रजा को भी इकद्रा करता था और उन्हें विश्वास में लेता था। राज्य में धर्म के प्रति प्रजा का अनुराग बनाए रखने के लिये राजा स्वयं आचार्यों की वंदना और सावुओं की रक्षा करता था तथा योग्य व्यक्तियो को समुचित सम्मान और असाधुओं को दण्ड भी देता था। वह राज-कोष से अभ्यर्थियों को दान देकर दीन और अनाथों का पालन भी करता था। प्रजामें अनाचार स्थान न पाए इस लिये राजा स्वयं अपना आचरण इतना विशुद्ध बनाता था कि अपने पतियों से विरहित स्त्रियां उसे अपना पुत्र तथा पतियों के साथ रहनेवाली स्त्रियां उसे अपना भाई समझने में शंका नहीं करती थी। यह शुद्ध आचरण वह विद्वानों तथा सयानों की सेवा कर, शुद्ध आचरण करने वाले व्यक्तियों की संगति कर तथा अनैतिकता का सर्वथा त्याग कर ही अपनाने में समर्थ हो पाता था। इसके साथ ही वह प्रजा में शुद्ध आचरण की प्रतिष्टा के हेतु दुश्चरित्र व्यक्ति को दण्ड भी देता था जो 'देश-निर्वासन भी हो सकता था।" राजा को जिन बातों का त्याग करना चाहिए उनका निर्देश भी पा. च. में हुआ है । वे बाते हैं- बिना विचारे कार्य करना, बिना अपराध के दण्ड देना, दुष्टता का आचरण करना, यश को क्षीग होने देना तथा व्यर्थ प्रलाप करना ।"
राजा और सेना का संबन्ध घनिष्ठ है। पद्मकीर्ति द्वारा वर्णित राजा चतुरंगिगी सेना की व्यवस्था करते थे। इस चतुरंगिणी सेना में सिंह जुते हुए रथ भी हुआ करते थे। यह सेना भिन्न २ समूहों में बंटी होती थी। एक रथ, एक गज, तीन घोडे और पांच योद्धाओं का दल पंक्ति कहलाता था। तीन पंक्तियों का दल से 'सेना', तीन सेनाओं के दल से सेनामुख, तीन सेनामुखों के दल से गुल्म, तीन गुल्मों के दल से वाहिनी तथा तीन वाहिनियों के दल से पृतना बनती थी।" तीन पृतनाओं के योग से चमू बनता था, तीन चमुओं से अनीकिनी और दस अनीकिनियों के योग से एक अक्षौहिणी सेना होती थी।" इस अक्षौहिणी सेना में इक्कीस हजार आठसौ सत्तर रथ, उतने ही हाथी, पैंसठ हजार छह सौ दस घोडे और एक लाख नौ हजार साढेतीन सौ पैदल होने थे ।" इस सेना की अस्त्र-शस्त्र सजा में, धनुस, वावल्ल, भल्ल, चक्र, कुंत, नाराच, खड्ग, अर्धेन्द्रबाण, शक्ति, मुद्गर टंक, कृपाण, खुरप्प, असिपुत्रि, चित्रदंड आदि प्रमुख थे । युद्ध में प्रायः रथी रथियों से, हाथी हाथियों से, अश्वारोही अश्वारोहियो से और पैदल पैदलों से जूझते थे ।“ सेना के प्रधान वीर अपने समान शौर्यवाले प्रतिपक्षी से युद्ध करते थे। "युद्ध में विजयी सेना विपक्षिओं को बन्दी बनाती थी जो क्षमा-याचना करने पर मुक्त कर दिए जाते थे । वैसे परास्त हई समस्त सेना विजयी राजा का आधिपत्य स्वतः स्वीकार कर लेती थी।"
पासणाह चरिउ की शब्दावलि :
साहित्यिक दृष्टि से पा. च. की भाषा सरल और प्रसाद गुण सम्पन्न है। जहां मुनियों द्वारा उपदेश दिये गये हैं
१ पा. च. ५. ६. ११. २. पा. च. ६. ७. १२-१३. ३. पा. च. ६. ६. १-२. ४. वही ५. ६. ६. ५. वही २.३ १-१० ६. वही ६ ८. ४,५. ७. बही ६. ८.६ ५.६.१.. ८. पा. च. १. ८. ६-७. ९. पा. च. ५.६.८-१०.१०. पा. च ११८१०. ११. पा. च. ५.६ ५-१.. १२. पा. च. ९. १४. ५. १३. पा. च. १०.४. ९.१४. पा. च. १२. ५.३-८
१५ पा. च. १२. ५. ९-१४. १६ पा. च. १२. ७. ३-८. १७. वही १२. १३. १, ८, १२. १३. १०, १२. १८. वही ११. . २. ३-४. १९. वही ११. ८ से १३ कडवक. २०. पा. च. १३. ३. १३-१५. २१. वही १३. १. ११-१२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org