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प्रस्तावना
ग्रहण किए हैं। उन आठ अंगो में पद्मकीर्ति द्वारा बताए गए केवल परसमयप्रशंसन नामक दोष का समावेश नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र (७. २३)' में सम्यग्दृष्टि के पांच अतीचार बताए गए हैं। पद्मकीर्ति द्वारा बताए गए सम्यक्त्व के पांच दोषों में से प्रथम तीन ओर पांचवां वे ही हैं जो तत्वार्थसूत्र के प्रथम चार अतीचार हैं । सर्वार्थसिद्धकार ने इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए सूत्र ७. २३ की टीका में लिखा है कि दर्शनविशुद्धि के प्रकरण में जिन निःशङ्कितादि अंगों का व्याख्यान किया गया है उनके ही सूत्रोक्त शंका आदि प्रतिपक्षी दोष समझना चाहिए । इस टीकामें यह भी स्पष्टरूप से कथन किया गया है कि उक्त आठों अंगों में से अंतिम अमूढदृष्टिता आदि पांचों अंगों के प्रतिपक्षी दोषों का प्रस्तुत सूत्र के अन्यदृष्टिप्रशंसा तथा संस्तव इन दो अतीचारों में अन्तर्भाव किया गया जानना चाहिए। तात्पर्य यह कि तत्त्वार्थ सूत्र के पांच अतीचारों का विश्लेषण कर सवार्थसिद्धिकार ने सम्यक्त्व को आठ अंगों से युक्त किया और इसे पद्मकीर्ति ने चार गुणोंसे निर्मल और पांच दोचों से मलिन होने वाला माना है।
तत्वार्थसूत्र ७. २३ में जिन्हें अतीचार बताया है उन पर श्रावकप्रज्ञप्ति में (८६ से ९६ ) विस्तार से प्रकाशडाला गया है। भगवती आराधना में सम्यक्त्व के पांच अतीचारों का और चार गुणों का पृथक पृथक् निर्देश किया गया है। प. च. में इन गुणदोषों को जो चर्चा है वह भगवती आराधना के अनुसार की गई प्रतीत होती है। यदि कोई भेद है तो वह भगवती-आराधना में बताए गए केवल पांचवें अती चार के नाम के संबन्ध में । इस ग्रन्थ में जिसे अणायदणसेवणा (अनायतनसेवना) कहा है प. च. में उसे मूढदृष्टि नाम दिया गया है।
सम्यक्त्व के गुणदोषों का उल्लेख करने के पश्चात् पद्मकीर्तिने सम्यक्त्व से उदित होनेवाले भिन्न २ लाभों का निर्देश किया है और अन्त में उसकी प्रधानता इन शब्दों में घोषित की है-जिस प्रकार से वृक्षों में मूलप्रधान है, रथ में अक्ष, मनुष्यशरीर में नेत्र और गगनतल में शशी उसी प्रकारसे बारहविध धर्म में सम्यक्त्व प्रधान है। (आ) श्रावक धर्म:
प्राचीनकालसे ही श्रावक धर्म के संबन्ध में आचार्यों की दो परंपराएं चली आ रही हैं । एक तो वह जो श्रावक के आठ मूल गुणों को मानती थी तथा दूसरी जो उनका प्रतिपादन नहीं करत थी। स्वामी समन्तभद्र, आचार्यजिनसेन, सोमदेव आदि आठ मूलगुण माननेवाली परंपरा के और आचार्य कुंदकुंद, स्वामी कार्तिकेय, तत्त्वार्थसूत्रकार और उनके टीकाकार आठ मूलगुण न माननेवाली परंपरा के थे। पद्मकीर्तिने आचार्य कुंदकुंद की परंपरा का अनुसरण किया अतः उनके अनुसार जो अहदेव का उपासक हो, जो जिनदेव को छोड़ अन्यकिसी देव को, निर्ग्रन्थ को छोड़ अन्य किसी गुरु को और सम्यक्त्व को छोड़ अन्य किसी धर्मको न माने तथा जो अगुव्रतों, शिक्षाव्रतों और गुणवतों का पालन करे वह सच्चा श्रावक होता है। श्रावक धर्म के बारह प्रकारके होने का उल्लेख पनकीर्ति ने किया है। इस बारह विध श्रावक धर्म से आशय पांच अणुव्रत, तीन गुणवत ओर चार शिक्षाबतों से है। इन तीन वर्ग के व्रतों की आपेक्षिक महत्ता को ध्यान में रखकर पद्मकीर्तिने पहले अणुव्रतों का फिर गुणवतों का और अंत में शिक्षावतों का स्वरूप स्पष्ट किया है। अणुव्रत :
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह व्रत हैं । इनका पूर्णरूपसे पालन महाव्रत और स्थूलरूप से पालन १. शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसास्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः । २. समत्तादीयारा संका कंखा तहेव विदिगच्छा । परदिट्ठीण पसंसा अणायदणसेवना चेव ॥
उवगृहणठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा गुणा भणिया । सम्मत्तविसोधिये उबुंहणकारया चउरी ॥ भ. आ. ४४, ४५. ३. पा. च. ३. ७.१-४.५. पा. च. ३. १३.८
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