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शिक्षा और गुण व्रत
अणुव्रत कहलाता है।' पा. च. में इन अणुव्रतों के स्वरूप को नितान्त सरल शब्दों में समझाया है। देवता, औषधि, तथा मंत्रसिद्धि हेतु छह प्रकार के जीवों को पीडा न पहुँचाना तथा दया, नियम, शील और संयम से जीवन-यापन करना अहिंसाव्रत है। जिन वचनों से दूसरे को कष्ट हो कलह हो, अविश्वास हो तथा पाप हो उनका परिहार सत्यत्रत हैं। किसी भी स्थान में चाहे वह स्थान मार्ग हो, ग्राम हो, खेत हो, निर्जनभूमि हो, वन हो, चौराहा हो या चाहे घर हो, किसी का भी धन फिर चाहे वह गिरा ही क्यों न हो, ग्रहण न करना अस्तेयव्रत है । दूसरे की सुन्दर स्त्रियों को देखकर मन में विकार भी उत्पन्न न होने देना ब्रह्मचर्यव्रत है। माणिक्य, रत्न, गृह, नौकर-चाकर तथा अन्य प्रकार की संपत्ति का परिमाण बांध लेना अपरिग्रह व्रत है। गुणव्रत :
इनकी संख्या तीन है। चारों दिशाओं में अपने गमनागमन की सीमा बांध लेना पहिला गुणव्रत है। पशुओं या अन्य प्राणियों के संबन्ध में पाश, जाल, शस्त्र, अग्नि आदि का उपयोग न करना तथा जीवधारियों को न पालना, न खरीदना न बेचना, न गरम लोहे से उनके शरीर पर निशान डालना, न शस्त्र से उन्हें घाव-युक्त करना, न क्रोधवश उनके कान-पूंछ उमेठना प्रत्युत उनके शरीर की देखभाल अपने शरीर के समान ही करना दूसरा गुणव्रत है । ताम्बूल, वस्त्र, आभरण, हाथी, घोडा, रथ, भोजन, फल-फूल, सुगन्धि-द्रव्य आदि उपभोग की वस्तुओं का यथासंभव वर्जन करना तीसरा गुणवत है । ये तीनों व्रत चूंकि अणुव्रतों के गुणों में वृद्धि करते हैं अतः इनका नाम गुणव्रत रखा गया है। पा. च. में इन तीनों व्रतों के पृथक पृथक नाम नहीं दिए गए हैं पर इनके स्वरूप से स्पष्ट है कि ये वेही व्रत हैं जिन्हें अन्यत्र दिग्बत, अनर्थदण्डव्रत तथा भोगोपभोग परिमाणवत नाम दिया गया है।" शिक्षाबत :
ये व्रत चार हैं । इन व्रतों के पृथक् पृथक् नामों का निर्देश पा. च. में नहीं किया गया है किन्तु उनके स्वरूप को अत्यन्त रोचक ढंग से समझाया गया है। प्रत्येक मास के चार पवौं (दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी) में उपवास करना पहिला शिक्षावत है।" सामायिक भाव से आराध्यदेव का स्मरण करना दूसरा शिक्षाव्रत है। ऋषि, मुनि या अन्य संयमधारियों की बाट जोहकर उन्हें भोजन कराना तीसरा शिक्षावत है।" मृत्यु-समय समीप दिखाई देने पर अनशन स्वीकार कर लेना चौथा शिक्षाव्रत है । इनके स्वरूप से स्पष्ट है कि ये चारों वे ही व्रत हैं जिन्हें चारित्रपाहुड में क्रमशः प्रोषध, सामायिक, अतिथिसंविभाग तथा सल्लेखना नाम दिया गया है।"
इन तीन गुणवतों और चार शिक्षाबतों का उल्लेख आगम ग्रन्थों में केवल शिक्षाबतों के नाम से हुआ है किन्तु उनके पृथक् पृथक् नामों का निर्देश उनमें प्राप्त नहीं है । कुंदकुंदाचार्य के चरित्र पाहुड" में गुणवतों और शिक्षात्रतों का पृथक् पृथक निर्देश है तथा उन सातों व्रतों को वे ही नाम दिये गए हैं जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। सांवेयधम्म दोहा में उक्त व्रतों के नाम तथा उनका दो वर्गों में विभाजन चारित्रपाहड के अनुसार है। अन्यग्रन्थों में इन व्रतों को दो वर्गों में विभाजित करने तथा उनमें समावेशित व्रतों के विषय में अन्यान्य व्यवस्थाएं अपनाई गई हैं। तत्वार्थसूत्र
१. त. सू. १, २।२ पा. च. ३. ९ २, ३ । ३ वही ३. ९. ४, ५। ४. वही ३. ९. ६, ७।५. वहो ३. ९. ८, ९। ६. वही ३.९ १०, ११। ७. पा. च. ३. १०. २, ३।८ पा. च. ३. १०.४-७। ९. वही ३.१०. ८-१०।१०. र. श्रा. ४. १. । ११. का. अ ३४१ से ३५०। १२. पा. च. ३. ११.२, ३ । १३. पा. च. ३. ११. ४, ५। १४. पा. च. ३. ११. ६, ७॥ १५. वही ३. ११. ८, ९ १६. चा. पा. २६ । १७. णा. क. १. ५. ६२ तथा स्था. ९१६ । १८. गाथा-२५, २६ । १९. गाथा ६५ से ७१। २०. ७. २.।
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