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प्रस्तावना
अर्थात् -चूंकि प्रथम तीर्थकर के समय मनुष्य कठिनाई से शुद्ध भाव ग्रहण करते हैं और अंतिम तीर्थकर के समय उन्हीं मनुष्यों को मुश्किल से सही मार्ग पर रखा जा सकता है और चूंकि मनुष्य प्रारंभ में और अन्त में यह नहीं जानते थे कि क्या किया जाए और क्या न किया जाए अतः पांच महाव्रतों की शिक्षा उन्हें दी गई क्यों कि इनका समझाना, विश्लेषण करना और समझना अपेक्षाकृत सरल है । ऐसी स्थिति में मूलाचार की उक्त गाथाओं में प्रयुक्त सामायिक तथा छेदोपस्थापन शब्दों के अर्थ पर विस्तार से विचार करना आवश्यक हो जाता है । मूलाचार के अनुसार समस्त मानव कर्मों से विरति का पालन सामायिक है तथा उस विरति का वर्गों में विभाजन कर पालन करना छेदोपस्थापन है । इस प्रकार विभाजित वर्गों को ही पांच महाव्रतों का नाम दिया गया है, यह भी मूलाचार से ही ज्ञात हो जाता है । मूलाचार के टीकाकार वसुनंदिने यह असंदिग्ध शब्दों में कहा है कि छेदोपस्थापना का अर्थ ही पांच महावत होता है । सामायिक तथा छेदोपस्थापना के उपर्युक्त संबंध तदनुसार उनके अर्थ का निर्देश सर्वार्थसिद्धि में भी किया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्र ७-१ पर टीका करते हुए देवनन्दिपूज्यपादने यह कथन किया-- " सर्वसावधनिवृत्तिलक्षगसामायिकापेक्षया एकं व्रतं तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधमिहोच्यते (जिसका लक्षण सर्वसावध (कौं) से निवृत्ति है उस सामायिक की अपेक्षा से यहां पांच प्रकार का कहा गया है)। यह कथन पूज्यपाद ने पांच महाव्रतों के प्रसंग में किया है अतः उनका यहां पांच प्रकार से आशय पांच महावतों से ही है। तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्र ७–१ राजवार्तिक टीका में भी सामायिक तथा छेदोपस्थापना का वही अर्थ किया गया है जो सर्वार्थसिद्धिकार ने किया है । दिगंबर परंपरा में इसका यह स्पष्टीकरण राजवार्तिककार के पश्चात् भी दिया जाता रहा है। पं. आशाधर ने इसका उल्लेख अनागारधर्मामृत में किया है । सामायिक के इस अर्थ का समर्थन हमें उत्तराध्ययन सूत्र से भी होता है जहां कहा गया है कि सामयिक से सावध अर्थात् सदोष क्रियाओं से विरति की प्राप्ति होती है । उत्तराध्ययन सूत्र (२८-३१) पर टीका करते हुए शान्त्याचार्य ने सामायिक का वैसा ही स्वरूप समझाया है जो मूलाचार में प्रतिपादित है। उनके शब्दे हैं- स एव सामायिक-........ दरमीय .... सर्वसावद्यविरतिमेव । (वह सामायिक ही है .... यह भी सब सदोप क्रियाओं से विरति ही है)। सामायिक संयम का ही भेदरूप से प्रतिपादन छेदोपस्थापना कहा जाता है यह भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति की इन गाथाओं से भी ज्ञात होता है :
सामाइयंमि उ कए चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । तिविहेण फासयंतो सामाइयसंजओ स खलु ॥
छेत्तण य परियागं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्मम्मि पंचजामे छेदोवद्रावगी स खलु ॥ २५.७.७८५
यहां यह कथन किया गया है कि सामायिक करने से चाउज्जाम धर्म का पालन होता है। जो इसे पालता है वह सामायिक-संयत होता है तथा जो सामायिक को विभाजित कर पांच यामों में स्थित होता है वह छेदोपस्थापक कहलाता है । तात्पर्य यह कि सामायिक एक व्रत है तथा उसका पांच यामों या बतों में विभाजन छेदोपस्थापन कहलाता है ।
सामायिक तथा छेदोपस्थापना के अर्थ निश्चित होने पर जब हम मूलाचार तथा उत्तराध्ययन सूत्र पर निर्दिष्ट बाईस और दो तीर्थंकरों की शिक्षा पर विचार करते हैं और जब यह निश्चित है कि जिसे उत्तराध्ययन में पंचसिक्खिओ कहा है वही मूलाचार के अनुसार छेदोपस्थापना है तो यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस शिक्षा को उत्तराध्ययन सूत्र में चाउज्जाम बताया है उसे ही मूलाचार में सामायिक कहा है और पार्श्वनाथ सामयिक संयम के उपदेष्टा थे तथा महावीर ने उसे पांच वर्गों में विभाजित किया । दिगम्बर सम्प्रदाय में चातुर्याम धर्म का कहीं उल्लेख नहीं है । उस परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ सामायिक संयम के उपदेष्टा थे ।
उक्त कथन की पुष्टि के लिए अंगों में ही प्रमाण उपलब्ध हैं । प्रथमतः चाउज्जाम का जो अर्थ सर्वत्र किया जा १. मू. आ. ७. २३,३३. २. वही ७. ३७. ३. अ. ध. ९. ८७. ४. उ. सू. २८. ८
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