________________
प्रतिक्रमणका उपदेश ।
" चउव्विहे संजमे पण्णते । तं जहा मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे । 99
संभव है कि यही चार यम रहे हो जिनके द्वारा विरति का पालन किया जाता रहा हो। संभव है मन, वाक् और काय संयमों में इंद्रिय संयम जोडकर यमों की संख्या चार कर दी हो जैसा कि मूलाचार की इस गाथा से प्रतीत होता है:
विरदो सव - सावजं तिगुत्तो पिहिर्दिदयो । जीवो सामाइयं णाम संजयद्वाणमुत्तमं ॥ ७२३
उपर्युक्त विवेचन का मथितार्थ यह है- पार्श्वनाथ ने सामायिक संवर का उपदेश दिया था जिसमें अभेद रूप से समस्त सावध कर्मों से विरति का पालन अभिप्रेत था । इसी सामायिक संवर का पालन चूंकि चार प्रकार के संयमों के द्वारा किया जाता था अतः उसे चातुर्याम का नाम दिया गया ।
५१
प्रतिक्रमण का उपदेश : -
पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म का स्वरूप निश्चित हो जाने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि महावीर द्वारा अपेक्षित पांच व्रतों में के प्रथम चार व्रतों को चातुर्याम धर्म के चार याम मानने की परंपरा कैसे चल पड़ी। इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें सामायिक और छेदोपस्थापना के स्वरूप को और भेद को तथा मुनि आचार में उनके विशेष महत्त्व को समझना आवश्यक । सिद्धसेनगणिने तत्वार्थसूत्र ९.१८ की टीका में सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए उसे समझाया है, तदनंतर यह कथन किया है- “ सामायिक दो प्रकार की होती है- अल्पावधिक तथा जीवनावधिक । उनमें से प्रथम के अल्पावधिक यह नाम देने का यह कारण हैं कि प्रथम तथा अंतिम तीर्थंकरो के तीर्थंकाल में वह प्रव्रज्या के समय ग्रहण की जाकर छेदोपस्थापना संयम में विशेषता की प्राप्ति के कारण, शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन आदि कर लेने वाले श्रद्धालु यति द्वारा उसके सामायिक नाम का त्याग कर दिया जाता है। जीवनावधिक सामायिक वह है जो मध्यवर्ती तीर्थंकरों तथा विदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों के तीर्थकाल में प्रव्रज्या के समय से प्रारंभ की जाकर जीवन के अन्त तक बनी रहती थी । "
“ प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के शिष्यों द्वारा सामान्य संयमपर्याय का त्याग किया जाता है तथा सर्व सावध योग की विशुद्धतर विरति का स्वीकार तथा छेदोपस्थाप्य रूपी अधिक स्पष्ट महाव्रतों का ग्रहण किया जाता है । छेदोपस्थापन ही छेदोपस्थाप्य है-अर्थात् पूर्वपर्याय (स्थिति) का त्याग तथा आगामी पर्याय का स्वीकार । यह छेदोपस्थापन भी दो प्रकार का है - अभंग (निरतिचार) तथा सभंग ( सातिचार ) | यह अभंग उस स्थिति में होता है जब कोई शिक्षक किसी विशिष्ट अध्ययन का ज्ञान उसके पठन के द्वारा प्राप्त करता है या मध्यवर्ती तीर्थकरों का कोई शिष्य प्रथम या अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य से उपसंपदा ग्रहण करता है । यह सभंग उस समय कहलाता है जब कोई (शिष्य) मूलगुणों में प्रमाद कर पुनः व्रतों को ग्रहण करता है । अभंग तथा सभंग ये दोनों प्रकार का छेदोपस्थाप्य केवल स्थितकल्प अर्थात प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के तीर्थ में होता है ।" इससे दो बातें स्पष्टरूप से ज्ञात होतीं हैं
(१) पार्श्वनाथ के शिष्य सामायिक ग्रहण करते थे तथा उसी का आजीवन पालन करते थे ।
(२) महावीर भगवान् के अनुयायियों के यति जीवन में सामायिक का पालन अल्पकालीन था और दीक्षित मुनि कुछ समय के पश्चात् अधिक स्पष्ट महात्रतो को ग्रहण कर उपस्थापना धारण करता था। इस प्रकार महावीर के शिष्यों का मुनिजीवन दो स्पष्ट मागों में विभक्त था - प्रथम प्रव्रज्या कहलाता था तथा दूसरा उपस्थापना । भिन्न भिन्न तीर्थंकरों के तीर्थ में प्रतिक्रमण संबंधी दो धर्म थे यह भगवतीव्याख्याप्रज्ञप्ति, आवश्यकनिर्युक्ति तथा मूलाचार से भी स्पष्ट है । वे स्थल जिनमें इसका निर्देश है निम्नलिखित हैं :- एएसु णं भंते पंचसु महाविदेहेषु अरिहंता भगवंतो पंचमहावइयं पडिकम्मं धम्मं पनवयंति ..... एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउनामं धम्मं पन्नवयंति । भ. सू. २०८. ६७५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org