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या सर्वमान्य ग्रंथ के रूप में पढायी जाती थी । किन्तु अठारहवीं सदी के आरम्भकाल में निर्मित नागेश के परिभाषेन्दशेखर ने उसे पीछे रख दिया ।
नीलकण्ठ दीक्षित के दूसरे नाम नीलकण्ठ बाजपेयी और नीलकण्ठ यज्वन् भी था । वे ईसा की सत्तरहवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए । भट्टोजी दीक्षित के विद्यार्थी और तत्त्वाबोधिनी टीका के कर्ता जिनेन्द्रसरस्वती उसके गुर थे। उन्हों ने परिभाषावृत्ति के अतिरिक्त व्याकरण सम्बन्धित भाष्यतत्त्वविवेक, वैयाकरणसिद्धान्तरहस्य (सिद्धान्त कौमुदी की टीका) और पाणिनीय दीपिका ग्रंथ लिखे हैं । इन ग्रंथो में वे महाभाष्य व वार्तिककार को ही अनुसरे हैं । उसकी रची हुई परिभाषावृत्ति में १४० परिभाषाओं की सरल व्याख्या/वृत्ति प्रस्तुत की है। प्रायः उन्होंने सीरदेव की परिभाषाओं के क्रम का ही अनुसरण किया है । उनकी वृत्ति संक्षिप्त व मुख्य मुख्य बातों से युक्त है।
हरिभास्कर अग्निहोत्री, जो नीलकण्ठ के बाद थोडे ही समय में हुए । इनका मूल नाम भास्कर ही था किन्तु बाद में वे हरिभास्कर नाम से प्रसिद्ध हुए। वे महाराष्ट्र के नासिक जिल्ला के त्र्यम्बकेश्वर के वतनी थे, किन्तु उनकी पढाई बनारस में हुई थी और बाद में वहीं ही रहे थे । परिभाषाभास्कर के अलावा उनके अन्य कोई ग्रंथ नहीं है। परिभाषाभास्कर में उन्होंने सीरदेव की परिभाषाओं के क्रम का ही अनुसरण किया है। सीरदेव की बृहत्परिभाषावृत्ति में जो बातें कठिन प्रतीत होती है, उसे सरल बनाना ही उनका ध्येय था, ऐसा लगता है और इसी ध्येय में बहुत कुछ मर्यादा तक वे सफल भी हुए हैं। सीरदेव की बृहत्परिभाषा के विद्वद्भोग्य जो अंश है वह और पूर्वभारतीय परम्परा के संदर्भो को उन्होंने छोड दिये हैं । वे महाभाष्य को प्रमाणभूत मानकर चले हैं। उनके ग्रन्थ में मम्मट, बोपदेव, विद्यारण्य और अन्य प्रमाणभूत कवियों के काव्य की पी परिभाषावृत्ति पर उनके ही विद्यार्थी द्वारा बनायी गई छोटी सी टीका भी है किन्तु किसी भी कारण से व्याकरण के अभ्यास/अध्ययन में उसका कोई स्थान नहीं रहा है।
ईसा की सत्तरहवीं सदी के अन्त में और अठारहवीं सदी के प्रारंभ में नागेश नामक बुद्धिमान और व्याकरण के श्रेष्ठ अध्येता हुए, जिन्होंने पाणिनीय परिभाषाओं के बारे में एक विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ लिखा जिनका नाम है परिभाषेन्दुशेखर । जो आज भी पाणिनीय परिभाषा क्षेत्र में अद्वितीय स्थान पर है। परिभाषाओं के बारे में उनके मत या वाक्य को प्रमाणभूत माना जाता है। संस्कृत व्याकरण की परम्परागत प्राचीन अध्ययन पद्धति आज भी जहाँ विद्यमान है, ऐसी शैक्षणिक संस्थाओं में आज भी परिभाषेन्दुशेखर पढाया जाता है। यही ग्रंथ व्याकरणशास्त्र के गहन अध्ययन का फल है। उसमें प्राप्त प्राचीन व मध्यकालीन ग्रंथों के संदर्भो से पता चलता है कि उन्होंने इन ग्रंथों का गहन अध्ययन किया होगा। पूर्वकालीन ग्रन्थकारों के नाम उन्होंने कहीं नहीं दिये हैं। सर्वत्र 'केचित, कश्चित्' या 'प्राचीन' शब्द से उन वैयाकरणों की मान्यताओं को बतायी हैं। परिभाषाओं के बारे में प्रमाणभूत माने जाते प्राचीन वैयाकरणों काशिकाकार, पदमञ्जरीवृत्तिकार, प्रदीपकार की मान्यताओं का उन्होंने बहुत से स्थान पर खंडन किया है। व्याकरण परिभाषाओं के बारे में विद्वज्जगत् में परिभाषेन्दुशेखर के शब्द को अन्तिम शब्द माना जाता है।
परिभाषेन्दुशेखर व नागेश के बारे में अधिक जानकारी 'परिभाषेन्दुशेखर' की प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी द्वारा लिखी गई विवेचनात्मक प्रस्तावना में प्राप्त है । अतः वहाँ से देख लेने को विनति ।
आचार्य श्रीलावण्यसूरिजी ने सिद्धहेम परम्परा में 'न्यायसमुच्चय' नामक ग्रंथ की 'तरङ्ग' नामक टीका में परिभाषेन्दुशेखर' के बहुत से संदर्भ दिये हैं और उसकी विस्तृत विचारणा भी की है। उसमें से कुछ आवश्यक चर्चा को यही हिन्दी विवेचन में स्थान दिया गया है । जिज्ञासुओं को 'न्यायसमुच्चय' की 'तरङ' टीका देखने को विनति ।
पाणिनीय परम्परागत परिभाषा के विषय में नागेश के बाद भी शेषाद्रि नामक एक पंडित ने परिभाषावृत्ति लिखी है। यद्यपि उन्होंने नागेश के परिभाषेन्दुशेखर के परिभाषा क्रम को ही लिया है तथापि वह परिभाषेन्दुशेखर
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