________________ नषधीयचरिते अनुवाद-तीनों लोकों को मोहित कर देने को महान् औषधि वह ( दमयन्ती ) सैकड़ों बार मेरे सुनने में आई ही है, किन्तु तुम्हारे इस कथन से उसे मैं अपनी आँखों से ही देख-समझ रहा हूँ॥ 54 / / टिप्पणी-यहाँ दमयन्ती पर महौषधित्व का आरोप होने से रूपक है। विद्याधर ने माविक भलंकार भी माना है। भाविक वहाँ होता है जहाँ भूत-भविष्यत् बातों का ऐसा सजीव वर्णन किया जाता है कि वह 'प्रत्यक्षायमाप' हो जाय / यहाँ हंस के वर्णन से दमयन्ती नल को प्रत्यक्ष-जैसो हो गई है / शब्दालंकार 'मोह' 'महौ' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अखिलं विदुषामनाविलं सुहृदा च स्वहृदा च पश्यताम् / सविधेऽपि नसूक्ष्मसाक्षिणी वदनालंकृतिमात्रमक्षिणी // 55 // अन्वयः-सुहृदा च स्वहृदा च अखिलम् अनाविलम् पश्यताम् विदुषाम् सविधे अपि न सूक्ष्मसाक्षिणी अक्षिणी वदनालंकृतिमात्रम् / टीका-सुहृदा मित्रेण च स्वस्य आत्मनः हृदा हृदयेन (10 तत्पु०) च अखिलं सर्व वस्तुजातमिति शेषः अनाविरम् असंदिग्धम् अविपर्यस्तं च यथा स्यात्तथा पश्यतां जानता बिदुषां विवेकवता सविधे समीपे अपि न सक्षम सूक्ष्मवस्तु कज्जलादिकं तस्य साक्षिणो दशके ( 10 तत्पु० ) अक्षिणी नयने वदनस्य मुखस्य अलंकृतिः अलंकरणम् एवालंकृतिमात्रम् ( प० तत्पु० ) 'मानं कात्स्न्यंऽवधारणे' इत्यमरः ) चाहिं न सूक्ष्म नासंदिग्धं, नापि च निर्धान्तं पश्यति तत्त मुख-शोभाधायकमात्रम्, तस्मात् विदुषा शान-साधनं तु आप्त-पुरुषाः, सन्मित्राणि, स्वहृदयम् , अनुमानागमाश्च भवन्तीति मावः / / 55 // व्याकरण-सुहृद् सु सुष्ठ हृदयं यस्येति ( ब० वी० ) मित्र अर्थ में निपातन से हृदय को हृद् आदेश ( पा० 5 / 4.150 ) / अन्यत्र सुहृदय। विदुषाम् विदन्तीति /विद्+शत वस् आदेश ( 10 बहु०)। साक्षी सह+अक्ष+इन्। अनवाद-मित्र और अपने हृदय द्वारा सब कुछ ठीकठाक देखने वाले विद्वानों के लिए पास रहते हुए भी सूक्ष्म ( वस्तु ) को न देख ( सकने ) वाली आँखें मुख की केवल शोमामात्र हैं। 55 / टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कही है किन्तु उसका ममन्वय नहीं किया है। 'सुहृदा' में 'हृद्' शब्द के समानार्थक होने पर मो अन्वय भेद होने से लाटानुपास, 'क्षिणी' 'क्षिणो' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अमितं मधु तत्कथा मम श्रवणप्राघुणकीकृता जनः / मदनानलबोधने मवेत् खग! धाय्या धिगधैर्यधारिणः // 56 // अन्धयः-हे खग, जनैः मम श्रवण-प्राघुणकीकृता अमितं मधु तत्वथा ( मम ) मदनानल-बोधने धाय्या मवेत ( इति ) अधैर्य-धारिणः धिक् / टीका-हे खग पक्षिन् हंस ! जनैः लोकः विदर्भागतैरिति शेषः मम मे अवषयोः कर्णयोः प्राणिकोऽातायः ( 'आवेशिक प्राधुखिक आगन्दरतिथिस्तथा' इति हलायुधः ) अप्राघुणिका माधु