Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३
सण्णि-आहारित्ति।
__$८८. पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय०-चत्तारिक० मोह० उक्क०णत्थि अंतरं । अणुक्क० ओघं । विहंग०सत्तमपुढविभंगो । एवमुक्कस्सद्विदिअंतराणुगमो समत्तो। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
८. पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है । विभंगज्ञानी जीवोंके अन्तरकाल सातवीं पृथिवीमें कहे गये अन्तरकालके समान है।
विशेषार्थ-आदेशसे अन्तरकालका खुलासा करते समय जहां जो विशेषता होगी उसीका स्पष्टीकरण करेंगे शेषका खुलासा ओघके समान जानना । सामान्यसे नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है, अतः यहां उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होगा। इसी प्रकार प्रथमादि नरकोंमें भी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण घटित कर लेना चाहिये । सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति सेतालिस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है और योनिमती तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। किन्तु भोगभूमिमें उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती अतः प्रत्येकके कालमेंसे तीन पल्य कम कर देना चाहिये और इस प्रकार जो प्रत्येकका पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण काल शेष रहता है वही उनके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये। इसमें भी प्रारम्भका पर्याप्त होने तकका काल
और कम कर देना चाहिये। जिसका मूलमें निर्देश नहीं किया। इसी प्रकार मनुष्य त्रिकके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण लेना चाहिये। यहाँ सामान्य मनुष्यकी सेंतालिस, पर्याप्त मनुष्यकी तेईस और मनुष्यनीकी सात पूर्वकोटियाँ लेनी चाहिये। पंचेन्द्रिय तियञ्च लब्धपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट स्थिति उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही होती है जो संज्ञी पंचेन्द्रिय से मरकर उत्पन्न हुआ है। इनके बन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इनमें से किसी भी स्थितिका अन्तरकाल नहीं होता ऐसा कहा है। मूलमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंसे लेकर अनाहारक तक और भी जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनके भी इसी प्रकार समझना चाहिए। देवोंमें बारहवें स्वर्गतक ही मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और बारहवें स्वर्गकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक अठारह सागर है, अतः सामान्यसे देवोंके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देवोंमें जिसकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति हो उसमेंसे कुछ कम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका उकृष्ट अन्तर काल जानना चाहिये। आगे और जितनी मार्गणाएं बतलाई हैं उनमें भी इसी प्रकार विचारकर खुलासा कर लेना चाहिए। हां पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, काययोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और चारों कषायोंमें उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि इनका काल इतना कम है जिससे इनके कालके भीतर दोबार उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती। किन्तु जिसने अनुत्कृष्ट स्थितिके साथ इन मार्गणाओंको प्राप्त किया और मध्यमें एक समय
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