Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिअद्धाच्छेदो वेदं बंधिय पुणो अंतोमुहुत्तकालं णqसयवेदं बंधदि । णवंसयवेदबंधगद्धाचरिमसमए इत्थिवेदस्स जहण्णद्धाच्छेदो होदि । एवं पुरिसवेद-णसयवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं। णवरि असण्णिचरिमसमए इच्छिदणोकसायं बंधाविय तत्थेव बंधवोच्छेदं कादूण णेरइएमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालपडिवक्खपयडीओ बंधाविय पडिवक्रवपयडिबंधगद्धाचरिमसमए इच्छिदणोकसायस्स जहण्णअद्धाच्छेदो होदि।
३८६. एत्थ पडिवक्खपयडिबंधयद्धाणं माहप्पजाणावण णोकसायद्धाणमप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवा पुरिसवेदबंधगद्धा २। इत्थिवेदबंधगद्धा संखेज्जगुणा ४ । हस्स-रदिबंधगद्धा संखे०गुणा १६ । अरदि-सोगबंधगद्धा संखे गुणा ३२ । णवुसयवेदबंधगद्धा विसेसाहिया ४२। तिरिक्खगइ-मणुस्सगईसु देव-णिरयगईसु च एसो अद्धप्पाबहुआलावो वत्तव्यो । एसो उच्चारणाइरियाणमहिप्पाओ ।।
१३८७अण्णे पुण वक्खाणाइरिया एवं भणंति–ओघप्पाबहुआलावो तिरिक्खमणुसगईसु चेव होदि ) णिरयगईए पुण अण्णहा । तं जहा-सव्वत्थोवा पुरिसबंधगद्धा० ३। इथि०बंधगद्धा संखे गुणा ६ । हस्स-रदिबंधगद्धा विसे० ११ । णवुसयबंधगद्धा संखे०गुणा २२ । अरदि-सोगबंधगद्धा विसेसाहिया २३ । देवगईए णिरयगइभंगो । हेहिमबंधगद्धमुवरिमबंधगद्धम्मि सोहिदे सुद्धसेसं विसेसपमाणं होदि । काल तक नपुंसकवेदका बन्ध करता है, अतः उसके नपुसकवेदके बन्ध हानेके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य स्थिति कहनी चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि असंज्ञीके अन्तिम समयमें इच्छित नोकषायका बन्ध कराकर और वहीं उसकी बन्धव्युच्छिति कराके नारकियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर अन्तमुहूर्त काल तक प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध कराकर प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धकालके अन्तिम समयमें इच्छित नोकषायकी जघन्य स्थिति कहनी चाहिये।
३८६. अब यहाँ प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्ध कालके दीर्घत्वका ज्ञान करानेके लिये अर्थात् उत्कृष्ट बन्धकाल बतलानेके लिये नोकषायों के कालके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार हैपुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा २ है । इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा ४ है। इससे हास्य और रतिका बन्ध काल संख्यातगुणा १६ है। इससे अरति और शोकका बन्धकाल संख्यातगुणा ३२ है । इससे नपुंसक वेदका बन्धकाल विशेष अधिक ४२ है। जिनकी अंकसंदृष्टि क्रमशः २,१४, १६. ३२ और ४२ है । यह अल्पबहुत्व तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और नरकगतिमें कहना चाहिये। यह उच्चारणचार्यका अभिप्राय है।
३८७. परन्तु अन्य व्याख्यानाचार्य इस प्रकार कथन करते हैं-ओघ अल्पबहुत्वालाप तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमें ही होता है । परन्तु नरकगतिमें अन्य प्रकारसे होता है। वह इस प्रकार है-पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा ३ है। इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा ६ है। इससे हास्य और रतिका बन्धकाल विशेष अधिक ११ है। इससे नपुंसकवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा २२ है। इससे अरति और शोकका बन्धकाल विशेष अधिक २३ है। जिनकी अंकसंदृष्टि क्रमशः ३, ६, ११, २२ और २३ है। तथा देवगतिमें नरकगतिके समान भंग है। यहाँ नीचेके बन्धकालको ऊपरके वन्धकालमेंसे घटा देने पर जो शेष रहता है वह विशेषका प्रमाण है। ये
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